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________________ बिलकुल साफ है और यदि वह कहीं धुंधली भी है तो उसका कारण या तो कोई व्यक्तिगत स्वार्थ है, या अज्ञान है; इसमें धर्म का कोई दोष नहीं है। ___ असल में धर्म एक विज्ञान है । व्यक्ति और जगत् को पहचानने का एक सीधा-सहजसम्यक् शास्त्र है । वह संबन्ध-शोध का शास्त्र है। आत्मा क्या है ? शरीर क्या है ? आत्मा और शरीर का क्या सम्बन्ध है ? जगत् क्या है ? जागतिक सम्बन्ध क्या हैं ? आत्मा और इन जागतिक सम्बन्धों की परस्पर क्या स्थिति है ? क्या ये एक-दूसरे की टकराहट में हैं, या इनमें कोई सहअस्तित्व है ? इस तरह धर्म समीक्षक है हमारे उन सम्बन्धों का जो सामाजिक, सांस्कृतिक अथवा आर्थिक नहीं हैं वरन् आध्यात्मिक हैं, मानसिक हैं, चित्तगत हैं, चेतना से जुड़े हुए हैं । मजहब, अन्धा हो सकता है, धर्म के अन्धे होने का प्रश्न ही नहीं है, उसका पर्याय शब्द “आँख या दृष्टि" ही हो सकता है । इस तरह धर्म का अर्थ है "मैदान"। जो लोग मैदान छोड़ते हैं, वे धर्म को जान ही नहीं सकते । एक मुनि या ऋषि का मैदान उसका तप और उसकी साधना है; हमारे मैदान हम खुद हैं, या फिर समाज ही हमारा मैदान है। यहीं से यानी इसके प्रति हमारे व्यवहार से ही यह जाना जाएगा कि हम किसी ग्रन्थ की दासता में जी रहे हैं, या जीवन के जीवन्त, हरे-भरे खेत में खड़े हैं। गड़बड़, जो इन दिनों हुई है वह यह है कि हमने जीवन को किताब बना लिया है, और जीवन्तता से विमुख हो गये हैं। किताब जड़ है । शास्त्र या ग्रन्थ ज्ञान कभी हो नहीं सकता । ज्ञान ग्रन्थ के बाहर से उसके भीतर होता है, और जब तक उसमें पहुँचा ग्रन्थकार का भीतरी जीवन पाठक के भीतरी जीवन से नहीं जुड़ता किताब तब तक निरी निष्प्राण होती है । इस तरह शास्त्र को मैदान से जोड़ने की जरूरत प्रतिपल है। शास्त्र बहस की वस्तु नहीं है, वह मूलतः जीने की वस्तु है; क्योंकि उसकी सत्ता किसी साधक के जीवन में से ही आविर्भूत है; इसलिए वही किताब प्रभावित कर पायेगी जो मैदान से, यानी जीवन से जुड़ी हुई होगी । निष्कर्षतः जो किताब, शास्त्र, या ग्रन्थ जीवन से अटूट, अनवरत, अविरल जुड़ा नहीं होगा, वह हमें कुछ दे नहीं पायेगा। महावीर का अंश-अंश जीवन से जुड़ा हुआ था। उनका कोई ग्रन्थ नहीं था, वे आमूलचूल निर्ग्रन्थ थे। उनकी साधना ही उनकी सृष्टि थी; साधना में से जो प्रकट होता जाता था, स्वयमेव शास्त्र बनता जाता था । हमारे युग में ग़लती यूं हुई है कि हम साधक हए बिना ग्रन्थ को ले बैठे हैं; और उसे या तो घोख रहे हैं, या बाँच रहे हैं, या उसमें से किसी उद्धरण को किसी व्याख्यान में उदाहरण बना रहे हैं,; जीवन से कहीं भी उसे जुड़ा हुआ रख नहीं पा रहे हैं । ऐसा करने से हमारी उर्वरता तो चुक ही गयी है, ग्रन्थ भी ऊसर हो गये हैं; वस्तुतः असल मैदान चरित्र है, शास्त्र की शक्ति को उसमें से ही प्रकट होना चाहिये; यह तब संभव होगा जब हम उसे ज़िन्दगी से जोड़ेंगे। (शेष पृष्ठ २९ पर) तीर्थकर : मार्च ७९/४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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