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________________ संपादकीय हारें किताब, जीतें मैदान विगत कुछ शताब्दियों का इतिहास इस तथ्य का स्पष्ट साक्षी है कि हम कुछ किताबें जीतते आये हैं और मैदान प्रायः हमारे हाथों से निकल गया है। किन्तु अब वे दिन लद चुके हैं, जब किताबें बहस का मुद्दा बना करती थीं, और ज़िन्दगी महज़ एक गौण और और दबा हुआ भाग होती थी। आज बदलाव इतना तीखा है (हम महसूस भले ही उसे न करें) कि किताब स्वतः गौण होना चाहती है; लेकिन बदकिस्मती यह है कि हम उससे चिपटे हुए हैं और इस सच्चाई को नजरअन्दाज कर रहे हैं, कि जो भी स्थिति या वस्तु जीवन से जुड़ी हुई नहीं होगी, व्यर्थ और मृत होगी। इधर के कुछ वर्षों में किताब ज़िन्दगी के बीच काफी लम्बी और गहरी खाई बन गयी है । हम अनुभव करने लगे हैं कि हम किताब में हैं और हमें मैदान में आना चाहिये । हम यह भी लगातार महसूस कर रहे हैं कि हममें वह साहस अनुपस्थित हो गया है जो किताब को नकारना चाहता है और मैदान की चुनौतियों से जूझना चाहता है । विवेक की गैरहाजिरी और आवश्यक साहस के अभाव में हम पतझड़ के उस पीले पात की तरह बहे जा रहे हैं, जो आँधी में गिर गया है और अपनी अपरिहार्य नियति की प्रतीक्षा कर रहा है । स्थितियां बदल गयी हैं। यग एकदम निर्ग्रन्थों का आ गया है। अब ऐसे लोगों का जमाना हमारे सामने है, जो किसी खास किताब के गुलाम नहीं हैं, वरन् जो मानवीय हैं और अपनी तर्कशक्ति तथा विवेक का खुला उपयोग करना चाहते हैं। प्रायः सभी अस्तित्व और स्थितियाँ जीवन से जुड़ने के लिए अंगड़ाई भर रही हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, प्रार्थनागृह प्रायः सभी इस मुद्रा में हैं कि जीवन से किसी-न-किसी तल पर आ जुड़ें । हम पूजा, या इबादत कर रहे हैं और लगातार महसूस कर रहे हैं, कि इस प्रार्थना या इबादत को जिन्दगी से जुड़ा हुआ होना चाहिये । हमारी मानसिकता बदलाव के एक गहन रचनात्मक चक्र में आ उपस्थित हुई है, यानी बदलाव अपरिहार्य हो उठा है । जीवन का दबाव चारों ओर से इतना अधिक और सघन है कि वे सारी वस्तुएँ जो जीवन को अस्वीकार कर रही हैं, या करना चाहती हैं, अचानक ही लुप्त हो जाएँगी । उक्त चुनौती हवा में पुरज़ोर है, हाँ, यह बात अलग है कि हवा जिनसे लिपटी है वे उसे महसूस न करते हों। धर्म को लेकर इन दिनों कई रेखांकन हुए हैं । उसकी व्यापक जाँच-पड़ताल उन लोगों ने की है, जो उसके बारे में बहुत कम जानकारी रखते हैं । यह काम ठीक उसी तरह हुआ है जैसे कोई इंजीनियरी जानता नहीं है और किसी पुल की मजबूती पर अपना फैसला सुना रहा है । दूसरी ओर एक कोशिश इस तरह की भी हुई है कि लोग धर्म को ठीक इस तरह जानना चाहते हैं जैसे धूप, धुआँ, पानी, आग इत्यादि को जाना जाता है। वस्तुतः धर्म कोई रहस्यपूर्ण अस्तित्व नहीं है, वह अत्यन्त यथार्थवादी है और उसकी तस्वीर तीर्थंकर : मार्च ७९/३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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