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एक और विद्यानन्दि "क्या नाम है ?" --प्रेम-सनी वाणी में एक छोटा-सा प्रश्न था। “विद्याधर"--उत्तर इससे अधिक संक्षिप्त हो नहीं सकता था।
"हमारे साथ रहोगे तो विद्यानन्दि बना देंगे।" --गुरु की इस स्वस्तिपूर्ण आश्वस्ति में गहन अर्थ गर्भित था। बस, उस दिन, उसी क्षण विद्याधर का सर्वस्व ही विलीन हो गया। बनने में तो समय लगा पर मिटना तो तत्काल हो गया।
0 नीरज जैन साधु के साथ आडम्बर और गृहस्थ के साथ परिग्रह-पाप होते हुए भीआज की भौतिक मानसिकता में पाप माना नहीं जाता। साधु-संस्था में यत्र-तत्र दिखायी देने वाले शिथिल यत्नाचार और आरम्भ-प्रियता को देखते-देखते हम उस बात के आदी हो गये हैं और हमने यह बात प्राय: स्वीकार कर ली है कि ज्ञान, ध्यान और तप की सतत आराधना करने वाला, पूर्णत: निरारम्भी और यथार्थ अपरिग्रही साधु, अब केवल कथा-पुराण और आगम में ही ढूंढ़ा जा सकता है। यदि कहीं कोई विरल साधक अपनी निर्मल साधना से आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रदत्त तपस्वी की परिभाषा को चरितार्थ करते भी हैं तो उन तक हमारी दृष्टि पहुँचना बड़े भाग्य की बात है, क्योंकि ऐसे तपस्वी लोकरंजन की भावना से रहित जनमेदिनी से असंपृक्त, भौतिक कोलाहल से दूर ही कहीं मिल पाते हैं।
हम भाग्यशाली हैं कि मोक्षमार्ग के साक्षात् उपासक ऐसे दिगम्बर तपस्वी संतों की परम्परा हमारी पीढ़ी तक अक्षुण्ण और अविच्छिन्न बनी हुई चल रही है। भौतिकता के इस मादक विषाक्त वातावरण में विज्ञान की चकाचौंध के बीच जहाँ जीवन की सारी मानवीय स्थापनाओं का घोर अवमूल्यन हो रहा है, धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी जहाँ कथनी और करनी की दूरी निरन्तर बढ़ती ही जा रही है, वहीं कुछ ऐसे साधक भी हैं जो अपनी एकान्त निष्ठापूर्वक मूक साधना में संलग्न हैं। जो दिगम्बर मुद्रा के निर्भीक, निःस्पृह और स्वाधीन जीवन-दर्शन को अपने पर ही मूर्तिमान करते हुए भगवान् कुन्दकुन्द की मूल साधना-पद्धति की व्यावहारिकता का निःशब्द उपदेश दे रहे हैं। ज्ञान, ध्यान और तप के अतिरिक्त न जिनके पास कहने को कुछ है, न करने को।
बुन्देलखण्ड की एक सुन्दर उपत्यका में, सिद्ध क्षेत्र नैनागिरि की सनातन तपोभूमि पर इस वर्ष चातुर्मास-योग धारण करने वाले कठोर तपस्वी और अतिशय ज्ञानाराधक आचार्य श्री विद्यासागरजी एक ऐसे ही साधक हैं। तीस-बत्तीस वर्ष की अल्प वय, शुभलक्षणों वाला, गौर, सुकोमल शरीर, गरिमा-मण्डित सुदर्शन मुखाकृति और ओज-पूर्ण, किन्तु सनेह-सनी वाणी। तन से नितान्त निरीह और मन से अति निःस्पृह । नम्रता और सौम्य की साकार प्रतिमा :
तीर्थंकर : नव-दिस. ७८
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