SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिग्विजय बहुत भाया लगता है आप विशेषांकों की दिग्विजय इस सुन्दर अंक के लिए हार्दिक बधाई ! में निकले हैं। अभिनन्दन ! आपका 'साधओं को नमस्कार' वाला शब्द-गुणवन्त अ. शाह, बम्बई चिन्तन बहुत भाया। आचार्य विद्यासागरजी के दर्शनों का तथा चर्चा का सौभाग्य अनुपम मुझे भी मिला है । 'समणसुत्तं' का पद्यानुविशेषांक सभी दृष्टि से अनुपम है। वाद उन्होंने मेरी ही प्रार्थना पर किया था। मखपृष्ठ हृदय को छूता-सा लगा । प्रस्तुती- हमारे दिगम्बर समाज में साधुओं की उपेक्षा करण भेंट-वार्ता का तथा नैनागिर की यात्रा बहत होती है और इसके कुछ कारण भी हैं। का अत्यन्त आकर्षक है । कुल मिलाकर मूर्ति-पूजकों ने भगवान की म्रत को पकड़ विशेषांक विशिष्ट है। लिया और जीवन्त तपोमूर्तियों को जंगल -आशा मलैया, सागर में छोड़ दिया। आचार्य विद्यासागरजी के अभिनव परम्परा चतुर्दिक विश्व-विद्यापीठ जैसा वातावरण बनना चाहिये और इसके लिए समाज को अन्तर-बाहर एक-रूप आत्मिक प्रचुर र प्रभूत द्रव्य खर्च करना चाहिये। शान्तिप्रदायक पुष्कल विचारोत्तेजक -जमनालाल जैन, वाराणसी सामग्री से समवेत तथा नयनाभिराम साजसज्जायुक्त इस महत्त्वपूर्ण विशेषांक के स्वस्थ परम्परा का संवाहक प्रकाशन के लिए कोटिशः बधाइयाँ और _____ समय-समय पर निकले हुए. 'तीर्थकर' शुभकामनाएं स्वीकार कीजिए। के विशेषांकों की अपनी एक स्वस्थ परम्परा वैसे भी 'तीर्थंकर' का प्रत्येक अंक है। प्रस्तत विशेषांक भी उसी परम्परा का व्यवस्थित, पठनीय और संग्रहणीय होता है, संवाहक है, किन्त कलेवर की दष्टि से विशेषांक को उनसे भी आगे-बहुत आगे- 'तीर्थंकर' के विशेषांकों में यह विशेषांक रोचक, ज्ञानवर्द्धक और नवीन शैली में बौना विशेषांक के रूप में जाना जायेगा। वस्तुतत्त्व के उपस्थापक होते हैं । ऐसे वैसे बद्धिजीवियों के लिए खुराक पर्याप्त है। विशेषांकों की अभिनव परम्परा अभिन्द -कमलेशकुमार जैन, लाडनूं नीय है। ___इस अंक में संपादकीय के साथ ही सम्यक दिग्दर्शन श्रद्धेय पं. कैलाशचन्द्रजी, पं. देवेन्द्रकुमार ___ 'तीर्थंकर' के विशेषांक विचार-क्रांति शास्त्री, भेट: एक भेदविज्ञानी से, मोक्ष आज की दष्टि से अपने आप में महत्त्व रखते हैं; भी संभव, जैन विद्याः विकास-क्रम आदि के संपादकीय (साधओं को नमस्कार) में आलेख या विचार-सभी कुछ तो अनूठ है। निष्पक्ष और निर्भय बन करके आपने जो आपने अलभ्य चित्रों की संयोजना करके लिखा, वह वास्तविक है । आपने सम्यक् इस अंक को और भी अधिक मुखरित कर दिग्दर्शन करवाया है। दिया है। -डॉ. भागचन्द्र जैन, दमोह आचार्य श्री विद्यासागरजी के जीवन विचारोत्तेजक के संबन्ध में-आध्यात्मिक साधना में रत विशेषांक में संपादकीय लेख ने प्रबद्ध कर्म योगी-ध्यानयोगी को पढ़ा, तब से मन वर्ग को एक बार फिर से झकझोरा है। में भावना जागृत हो गयी । तीव्र उत्कण्ठा चिन्तन की गहराई से जो मोती निकले है बढ़ी कि महान विभति के दर्शन लाभ लेना उनकी माला ने 'तीर्थंकर' को अप्रतिम गौरव ___ चाहिये। -मानवमुनि, इन्दौर प्रदान किया है।-रत्ना जैन, छोटी कसरावद (शेष पृष्ठ ६३ पर) तीर्थकर : जन. फर. ७९/६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy