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________________ मील का पत्थर विशेषांक की सभी सामग्री बहुत-बहुत - विशेषांक पढ़ने बैठा तो तब छोड़ा जब मूल्यवान है । सच मानिए, विशेषांक के संबन्ध में मेरे जैसे अल्पज्ञ के लिए लिखने' पढ़ने को कुछ भी शेष नहीं बचा जैन पत्र कारिता के क्षेत्र में इस विशेषांक को मैं को उतना नहीं है, जितना 'लखने के लिए. 'मील का पत्थर' मानता हूँ। है । मैं उसे बारम्बार लखता रहूँगा। लाखों ___संपादकीय पढ़ा तो 'साधुओं को में एक है वह ! -पूरनचन्द जैन, गुना नमस्कार' के लेखक के प्रति सिर वन्दना अनमोल खजाना के भाव से बार-बार अपने-आप झुक-झुक 'तीर्थंकर' का 'विद्यासागर-विशेषांक' गया। 'साधु एक खुली किताब है', 'वह आपने क्या दिया है, एक अनमोल खजाना एक जीवन्त शास्त्र है।' 'चारित्र लिपि का ही मेरे हाथ में दे दिया है । प्रसन्नता है उपयोग हुआ है।' सच्चे साधु का इससे कि 'तीर्थंकर' दिन-दिन अपने रूप में निखार सरल, सीधा किन्तु सटीक वर्णन अन्य कहीं ला रहा है। विशेषांक में प्रकाशित चित्र, भी शब्दों में कदाचित संभव न होता। आचार्यश्री विषयक लेख और मलाकात लिपियाँ बहुत पढ़ी-सुनी हैं, पर साधुके भावविभोर कर देती हैं । बड़ा प्रभावित संदर्भ में 'चारित्र लिपि' का प्रयोग अत्यन्त हुआ हूँ, इस अंक से । रोज घंटों इस अंक को सार्थक है । 'लिपि' निश्चित, सुस्थिर और देखा करता हूँ, पढ़ा करता हूँ और भावप्रकट होती है । उसमें छद्म की गुंजाइश विभोर हो जाता हूँ । मुनिश्री का प्रवचन नहीं होती । 'खुली किताब' की 'चारित्र मन को छूनेवाला है। आचार्य शान्तिलिपि' तो आकाश की तरह सदैव सबके सागरजी के समान ही यह व्यक्तित्वद्वारा पढ़ी जा सकती है। और जब भी कोई साधुत्व है। मैं उस दिनभी प्रतीक्षा कर पढ़ेगा तभी उनके चरणों में 'सर्वोत्सर्ग' के रहा हूँ, जो मुझे इस महापुरुष के दर्शन सहज भाव से समर्पित हो जायेगा। करा सके। सन १९४६ के आसपास की बात है। विशेषांक के लिए आपने इतना सुन्दर, उन दिनों बम्बई में अंग्रेजी में प्रकाशित श्लाघनीय और श्रद्धा भक्तिमय कार्य होनेवाले 'फ्री प्रेस जर्नल' का संपादन श्री । किया है। -बसन्तीलाल जैन, राणापुर सदानन्द करते थे। उनके संपादकीय लेख पढ़कर जैसी आनन्दानुभूति होती थी, वैसी __ बहुत महत्त्वपूर्ण ही, बल्कि हिन्दी में होने के कारण कुछ विशेषांक पढ़कर बहुत खुशी हुई। अधिक' ही 'साधुओं को नमस्कार' पढ़कर तीर्थंकर' में जैन साधुओं का उनके जीवन हई। ऐसे मौलिक और अर्थ-प्रणव संपादकीय का महत्त्व बताया है । साधुओं की आज की के लिए मेरी अनेकानेक बधाइयाँ ! स्थिति पर ही बहत अच्छा प्रकटन किया है। ___ 'भेंट, एक भेदविज्ञानी से' के रूप में आचार्य विद्यासागरजी महाराज के जीवन पाठकों को ऐसी भेंट आपने भेंटी है जिसे के हर पहलू का दर्शन इस विशेषांक में होता वे अपने अन्तरतम में सम्हाल कर रखेंगे। है। इसलिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। 'मोक्ष आज भी संभव' से बहुत बड़ी आशा -पं. सुमतिबाई शहा, सोलापुर बंधती है। पं. कैलाशचन्द्रजी का लेख 'णमो लोए सव्वसाहणं' आम आदमी की अच्छी सामग्री तरफ से खास आदमी द्वारा लिखा गया लेख विशेषांक पूरा पढ़ गया हूँ। उसकी सभी है। और ‘णमोकारमंत्र' के इस पद से जिन्हें सामग्री अच्छी है। पत्र का स्तर उन्नत बनाने विरक्ति हुई हो, उन्हें बहुत सीधा सच्चा में आप दोनों हृदय से बधाई-योग्य हैं। नुस्खा उन्होंने तजवीज किया है। -डॉ. दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी तीर्थकर : जन. फर. ७९/५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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