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अन्य कोई हो नहीं सकेगी, किन्तु प्रश्न पहल का है, और मैं इस संदर्भ में तीन स्थानों की ओर टकटकी लगाये हूँ-सागर, जयपुर, इन्दौर।
जयपुर की ३ और ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं, जिन पर समस्त जैन समाज गर्व कर सकता है और जिन्हें देश-प्रदेश का युवावर्ग अपना सकता है; ये हैं-श्री महावीर विकलांग सेवा केन्द्र, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, तथा पं. टोडरमल स्मारक ।
विकलांग सेवा केन्द्र भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाण-महोत्सव की उपज है, और भले ही उक्त संदर्भ में जनमीं अन्य संस्थाएँ इतनी जल्दी गिर या डूब गयी हैं, किन्तु यह अभी सक्रिय है और अपनी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। उक्त संस्थान ने मानव-सेवा को एक नया आयाम दिया है और बिना किसी भेदभाव के अब तक सारे देश से आये २१०० विकलांगों की निःशुल्कनिष्काम सेवाएँ की हैं। बिना किसी प्रचार-प्रसार के मौन काम करने वाले इस संस्थान के पास भी युवा कार्यकर्ताओं का एक अच्छा दल है, जिसके प्रमुख हैंडा. सेठी, डी.आर.मेहता और श्रीविनयकुमार।.
. ' दूसरी संख्या है राजस्थान प्राकृत भारती जिसने प्राकृत भाषा और साहित्य के उद्धार का महान् कार्य हाथ में लिया है, कुछ अभिनव संकल्प किये हैं, और जो समर्थ हाथों में सक्रिय हैं। संस्थान ने अब तक दो प्रकाशन किये हैं, छह मुद्रणाधीन हैं और लगभग इतने ही अनुबंधित हैं । उसका अपना एक विकासोन्मुख ग्रन्थालय है, और जो एक ऐसा विद्याकेन्द्र स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है जो अनुसंधान तथा अध्ययन की एक ऐतिहासिक आसंदी सिद्ध हो सकेगा। श्री विनयसागरजी इसकी रीढ़ हैं और डा. डी.आर.मेहता स्नायुतंत्र । मैं इसकी योजनाओं के प्रति काफी आशान्वित हूँ।
तीसरी संस्था स्व. टोडरमलजी के नाम से जड़ी हई है जिसे श्री कानजी स्वामी का शुभाशीष प्राप्त है और जो डा. ज्ञानचन्द्र भारिल्ल के मार्गदर्शन में अपने उज्ज्वल भविष्य को तलाश रही है। इसका अपना एक विद्यालय है, जो परम्परित 'पैटर्न' पर नया काम करना चाहता है। एक अत्यन्त उदार धरातल पर इससे भी अनेक आशाएँ की जानी चाहिये। ऐसी संस्थाओं का खतरा एक ही रहता है कि वे समय के साथ रूढ़ और अंधी हो जाती हैं, किन्तु हमें विश्वास करना चाहिये कि उक्त संस्था रूढ़ नहीं होगी और अपने कार्यक्रमों तथा अपनी योजनाओं को जैनविद्या की प्रखरताओं से मूलबद्ध करेगी। 00
मैं उस भावी की उत्कण्ठापूर्वक प्रतीक्षा कर रहा हूँ, जिसमें नये मंदिर और उपासरों का स्थान उक्त प्रवृत्तियाँ ग्रहण कर लेंगी। क्या हम अपने मंदिरों और उपासरों को जैनविद्या की उज्ज्वलताओं और प्रखरताओं से जोड़ने में हिचकिचायेंगे ? शायद नहीं, कम-से-कम युवावर्ग कदापि नहीं, और कभी नहीं। -नेमीचन्द जैन
तीर्थकर : जन. फर. ७९/५४
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