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________________ सफल आयोजन में न्यास ने स्व. ब्र. सीतलप्रसादजी, क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी, तथा पं. परमेष्ठीदासजी जैसी क्रान्तिकारी विभूतियों को भी प्रणाम किया और उनके क्रान्तिसूत्रों को दोहराया। सारा बल आनेवाली सामाजिक क्रान्ति को परिभाषित करने पर ही दिया गया। इटोरया न्यास का स्वरूप यद्यपि पारिवारिक है तथापि उसकी गतिविधियाँ और सेवाएँ सार्वजनिक हैं और लोककल्याणकारी प्रवृत्तियों पर केन्द्रित हैं। युवा प्रतिभाओं का अभिनन्दन, राष्ट्रीय और सामाजिक परिवर्तन को गति प्रदान करने वाले साहित्य का प्रकाशन तथा नवसामाजिक उत्थान में रुचि न्यास के कुछ निर्धारित लक्ष्य हैं। सुखद यह है कि न्यास के पास एक अच्छी प्रगतिशील टीम है, जो नित नयी सांस्कृतिक पगडंडियाँ तलाशती है और कंधे-सेकंधा लगाकर काम करती है। इस टीम के प्रमुख हैं-डा. भागचन्द्र 'भागेन्दु' तथा वीरेन्द्रकुमार इटोरया। तीसरी यात्रा का सम्बन्ध जयपुर (राजस्थान) से है। यह २२ जनवरी को हुई। सिलसिला एक ९४ वें वर्षीय वयोवृद्ध 'आचार्य संस्कृत महाविद्यालय' के अमृतमहोत्सव का था, किन्तु इस नाते जयपुर की अन्यान्य रचनात्मक प्रवृत्तियों को देखने का अवसर भी प्राप्त हुआ। पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ के पुण्यस्मरण में आयोजित एक संगोष्ठी, जिसमें एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजी भी उपस्थित थे, और जिसमें जैन समाज के अनेक वयोवृद्ध पण्डित भी पधारे थे, में समाज की उन शिक्षणसंस्थाओं का उल्लेख भी हुआ जिनकी धड़कनें बन्द' होने को हैं, और जो अब लगभग अपनी अंतिम घडियां गिन रही हैं। शिक्षण-संस्थाओं की इस गिरती हई स्थिति के प्रति प्रायः सभी चिन्तित थे, किन्तु निरुपाय, हताश, उदासीन; पता नहीं परिणाम क्या होगा; किन्तु पं. चैनसुखदासजी की स्मृति में संपन्न इन गोष्ठी-सत्रों में यदि इन संस्थाओं के पुनरुद्धार की कोई योजना नहीं बन सकी तो फिर नाव में बड़ा सुराख हो जाएगा और उसका डूबना काफी असंदिग्ध हो जाएगा। इन सत्रों में, विशेषतः जयपुर विश्वविद्यालय के जैन अनुशीलन केन्द्र के तत्त्वावधान में आयोजित सत्र में, दो चिन्ताएं सामने आयीं-(१) भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण-वर्ष के दौरान स्थापित जैनविद्या तथा प्राकृत अध्ययन-अनुसंधान पीठों को संभाला जाए और उन्हें इस तरह समर्थ बनाया जाए कि वे भारत की प्राचीन भाषाओं के अध्ययन, तथा जैनधर्म के अनुसंधान इत्यादि में पूरी रुचि ले सकें। इन पीठों के लिए छात्र भी उपलब्ध कराये जाएँ तथा शिक्षा के क्षेत्र में हुए नवोन्मेष के अनुरूप पाठ्य पुस्तकें भी तैयार करायी जाएँ; (२) पण्डितवर्ग यानी जैन विद्वद्वर्ग अपना दायित्व समझे और बावजूद आर्थिक कठिनाइयों के समस्याओं से अपने स्तर पर जूझे और अत्यन्त स्वाभिमानपूर्वक नये शैक्षणिक परिवर्तनों की अगवानी करे। इस दृष्टि से यदि स्व. पंडित टोडरमलजी-जैसे महान् गणितज्ञ. की इस नगरी की कोख से यदि कोई शैक्षिक क्रान्ति अंगड़ाई लेकर सारे देश की जैन शिक्षण संस्थाओं का द्वार खटखटाती है तो उक्त आयोजन की इससे बड़ी सफलता तीर्थंकर : जन. फर. ७९/५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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