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________________ ये कुछ नये मन्दिर, नये उपासरे पिछले दिनों मुझे अनेक-अनेक संदर्भो में कुछ सामाजिक यात्राएँ करनी पड़ीं, जिनमें ऐसा कुछ देखने को मिला जिसकी मुझे कई वर्षों से प्रतीक्षा थी। मुझे लगा कि जहाँ एक ओर परम्पराएँ संगमर्रमर्र या कंकरीट के आलीशान मंदिर और उपासरे खड़े करने में मशगूल हैं, वहीं दूसरी ओर उत्साही और तर्कसंगत युवाशक्ति मानव-सेवा और लोकमंगल के नये मंदिर और उपाश्रय घड़ रही है-जहाँ वस्तुतः किसी इमारत या भवन का होना उतना प्रासंगिक नहीं है जितना जरूरी हैं सेवा, सांस्कृतिक जागरूकता, और निष्ठा। ___ इस दृष्टि से मेरी प्रथम यात्रा ७ मई १९७८ को शाजापुर जिले (मध्यप्रदेश) के एक बहुत छोटे गाँव रुरकी की हुई। रुरकी एक बलाई-बहुल गाँव है, बेरछा स्टेशन के काफी करीब । यहाँ बीकानेर (राजस्थान) स्थित अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैनसंघ ने एक उल्लेखनीय समाजसेवा का काम शुरू किया है। आचार्य श्री नानालालजी की स्वस्तिकर प्रेरणा से संघवर्ती शक्तियों ने बलाइयों के जीवन में रुचि ली है अर्थात् उन्हें एक नये सांस्कृतिक, सामाजिक एवं नैतिक अभ्युत्थान देने का सुदृढ़ संकल्प किया है। इस संकल्प की सबमें बड़ी विलक्षणता यह है कि इसके पीछे न तो संघ का कोई स्वार्थ है, और न ही कोई शर्त। इसे धर्मपालप्रवृत्ति का नाम दिया गया है, जिसके माध्यम से छुआछूत को एक ओर धकेल कर “मानव को मानव मानने" के मंत्रोच्चार का सूत्रपात किया गया है। इस प्रवृत्ति को देखकर प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने पहली बार महसूस किया कि महावीर की क्रान्ति पुन: अंगड़ाई ले रही है, और जैनों ने उस काम को हाथ में लिया है जो अहिंसक क्रान्ति का मेरुदण्ड बन सकता है। एक महत्त्व की बात जो इस क्रान्तिकरवट में दिखायी दी है वह यह कि इसके किसी भी स्तर पर पैसा प्रथम नहीं है। फिलहाल उक्त प्रवृत्ति मध्यप्रदेश के शाजापुर, उज्जैन और रतलाम जिलों में सफलतापूर्वक चल रही है, किन्तु आशा है कि जल्दी ही इसका सुखद विस्तार होगा और इसकी निष्कामनिःस्वार्थ सेवाएँ सुदूरवर्ती गांवों तक फैल जाएंगी। मानव मुनि, संत विनोबा ने उन्हें यही नाम दिया है, इस प्रेरणा की पृष्ठभूमि पर मौन-मूक सेवक की तरह निरन्तर कार्यरत हैं और इसे अधिक अन्तर्मुख तथा उपयोगी शक्ल देने का प्रयत्न कर रहे हैं। दूसरी यात्रा जनवरी १९७९ की है। १४ जनवरी को मध्यप्रदेश के एक कस्बाई नगर दमोह में स्व. भागचन्द इटोरया सार्वजनिकः न्यास के तत्त्वावधान में स्व. भागचन्द इटोरया की तृतीय पुण्यतिथि मनायी गयी, जिसमें अंधी-रूढ़ परम्पराओं को ताक में रखकर मानव-सेवा को प्रथम स्थान दिया गया। अपने इस उदार और सीर्थंकर : जन. फर. ७९/५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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