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________________ साधु-वाद साधु-वाद एक नया स्तम्भ है, जिसका उद्देश्य है जैन साधु-साध्वियों की उन हिन्दी-रचनाओं का प्रकाशन जो प्रयोगधर्मी हैं और जिनका लक्ष्य अध्यात्म को नयी भाषा-भंगिमा में प्रस्तुत करना है। यहाँ हम दिगम्बर जैनाचार्य मुनिश्री विद्यासागरजी की कतिपय रचनाएँ दे रहे हैं, जिनकी वस्तु जैनाध्यात्म है, शैली समस्तपदी है, किन्तु संभावनाएँ अनगिन हैं। हमें आशा है हमारे प्रिय-प्रबुद्ध पाठक इसे पसन्द करेंगे और अपनी कड़वी-मीठी प्रतिक्रिया अवश्य लिख भेजेंगे। - -संपादक पुरुष नहीं बोलेंगे मौन नहीं खोलेंगे जल - .. य समता से मम ममता जबसे तबसे क्षमता अनन्त ज्वलन्त प्रकटी . प्रमाद-प्रमदा पलटी ।। . कुछ-कुछ रिपुता रखती रहती मुझको लखती अरुचिकर दृष्टि ऐसी प्रेमी आप प्रेयसी ।। मैं प्रेम-क्षेम अब तक चला, किन्तु यह कब तक ? मेरा साथ हे नाथ होगा विश्वासघात ।। मुझ पर हुआ पविपात कि आपाद माथ गात विकल पीड़ित दिनरात चेतन जड़ एक साथ ।। प्रमाद के ये ताने व्यंग्य सुन समता ने मौन मुझे जब लख कर चिढ़ कर सुनकर मुड़कर ॥ उस ओर मौन तोड़ा विवाद से मन जोड़ा पुरुष नहीं बोलेंगे मौन नहीं खोलेंगे । अब चिरकाल अकेली - पुरुष के साथ केली करूँगी, 'खश करूँगी उन्हें जीवित नित लगी ।। पिला-पिला अमृत-धार । मिला-मिला सस्मित प्यार ॥ संप्रति अवश्य गंगा जलद की कुछ पीतिमा मिश्रित सघन नीलिमा चीर तरुण अरुण भांति बोध-रवि मिटा भ्रान्ति ।। हुआ जब से वह उदित खिली लहलहा प्रमुदित संचेतना सरोजिनी मोदिनी मनमोहिनी ॥ उद्योत इन्दु प्रभु सिन्धु खद्योत में लघु बिन्दु तुम जानते सकल को मैं स्व-पर के शकल को ।। मैं पराश्रित, निजाश्रित तुम हो, पर तुम आश्रित हो, यह रहस्य सूंघा संप्रति अवश्य गूंगा ।। ज्ञात तथ्य सत्य हुआ जीवन कृत-कृत्य हुआ हुआ आनन्द अपार हुआ वसन्त संचार ॥ फलतः परितः प्लावित पुलकित पुष्पित फुल्लित मृदुमय चेतन लतिका गा रही गुण गीतिका ॥ तीर्थकर : जन. फर. ७९/५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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