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________________ जैन साधु की चर्या "केवल बाहर से वसनों को ओढ़ना ही परिग्रह नहीं है, अपितु आहार में आसक्ति रखना, अमुक वस्तु में स्वाद लेना, संसार के विषयों के प्रति रुचि या चाह होना, अपने नाम और यश की कामना करना, 'मेरा कोई अभिनन्दन या स्वागत करें' ऐसा विकल्प होना, किसी के अच्छे-बुरे की अभिलाषा करना इत्यादि सभी परिग्रह की कोटि में हैं।" - डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री स्वसंवेद्य समरसानन्द की सहज अनुभूति से समुल्लसित स्वरूप की साधना में रत स्वात्मा का अवलोकन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थ सहज ही आत्माराम में विचरण करने वाले परमार्थ में जैन साधु कहे गये हैं। जो केवल व्यवहार में विमूढ़ हैं, जिन्हें शुद्धात्मा का परिचय नहीं है, केवल साधुता का वेश ही धारण किये हुए हैं, वे परमार्थ से जैन साधु नहीं हैं। जैन साधु ही उस शुद्धात्मचर्या में तल्लीन रहते हैं, जिस परमतत्त्व तथा सत्य के साक्षात्कार के लिए विश्व में नाना' जन तरह-तरह के नाम-रूपों तथा बाह्य क्रियाओं एवं मतों को अपना कर अपनी-अपनी मान्यताओं तथा पक्षों का पोषण कर रहे हैं; परन्तु वास्तव में जैन साधु सभी प्रकार के मत, मान्यताओं, पक्षों तथा आचार-विचारगत परिग्रहों से रिक्त यथार्थतः साधुता का पालन करता है। पालन करता है-यह कहना भी भाषा की असमर्थता है। जैन साधु तो अपनी चर्या में अपने गुण-पर्याय रूप परिणमते हुए अपने-आप का अवलोकन करते हैं। उस दशा में केवल विज्ञान घन स्वभाव अपने पूर्ण उज्ज्वल स्वरूप का चैतन्य का पूर्ण प्रकाश एकत्व रूप से उदित होता है, उस समय कोई द्वैत भासित नहीं होता है, अनादि काल की अज्ञान दशा विघट जाती है और स्वतत्त्व का उदय हो जाता है। यही ज्ञानियों का प्रभात है। अज्ञान-अन्धकार से प्रकाश में आना योगियों की चर्या है। . तमसो मा ज्योतिर्गमय का सहज सन्देश जैन साधुओं की चर्या से सहज प्रकट होता है। जिस अनात्म-दशा में संसार के तथाकथित विद्वान्, वैज्ञानिक तथा अन्वेषणकर्ता प्रत्येक समय सोते रहते हैं, उससे भिन्न आत्मस्थिति में ज्ञानी साधु प्रत्येक समय में जागृत रहते हैं-यहाँ तक कि जिस घोर अन्धकार से व्याप्त रात्रि में चर-अचर सभी जीव सोते रहते हैं, उस समय भी ज्ञानी अपने ज्ञान में जागते रहते हैं। ज्ञान-चेतना के समक्ष काम-वासनाओं, पर-भावों, विभावों तथा परसमय के मिथ्या भाव टिक ही नहीं पाते हैं। केवल ज्ञान-चेतना का विलास ही उत्तम मुनियों की चर्या है, जो स्थायी एवं सहज आनन्द की जननी है, जिसे एक बार उपलब्ध हो जाने के अनन्तर कुछ प्राप्तव्य एवं करणीय नहीं रह जाता है। वास्तव में जैन साधु की चर्या सच्ची शान्ति एवं आनन्द में निहित है। जब शुद्ध के लक्ष्य से प्रेरित अनन्तविकल्पी ज्ञान एक शुद्धात्मनिष्ठ होकर ज्ञानस्वभाव में तन्मय तीर्थंकर : मव-दिस.७८ १५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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