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( निश्चय से शरण अपनी शुद्धात्मा है और व्यवहार से शरण पञ्चगुरु हैं । शेष सब मोहभाव हैं 1 )
(३) परिग्रह -त्याग का मतलब केवल शरीर से नग्न रहना नहीं है । साधु के पास पीछी - कमण्डलु और एक-दो शास्त्र, जो स्वयं लेकर चल सके, होना चाहिये । आज संघों के नाम पर परिग्रह का कोई परिमाण ही नहीं है । मानो दिगम्बर जैन साधु- संघ न होकर महन्तों का कोई अखाड़ा हो। आज हम यह तक सुनते हैं कि अमुक संघ के इतने हजार के नोट दीमक खा गयी । यह क्या दिगम्बर मुनि-मार्ग है ? ऐसा परिग्रह तो श्वेताम्बर साधु भी नहीं रखते ।
आज के अपने गुरुजनों की इस तरह की विडम्बनाएँ देख कर मेरा यह मत बन गया था कि इस काल में सच्चा दिगम्बर जैन साधु होना संभव नहीं है; किन्तु जब से आचार्य विद्यासागरजी के दर्शन किये हैं मेरे उक्त मत में परिवर्तन हुआ है और मन कहता है कि उपादान सशक्त हो तो बाह्य निमित्त कुछ नहीं कर सकते ।
भर जवानी की अवस्था में इतनी असंलग्नता । मैंने ऐसे भी मुनि देखे हैं जिन्हें स्त्रियाँ घेरे रहती हैं । जो उनसे तेल - मर्दन कराते हैं उनकी तो बात छोड़ ही दीजिये। उनसे वार्तालाप में रस लेते हैं ऐसे भी हैं; किन्तु युवा मुनिराज विद्यासागरजी तो हमारे जैसे मनुष्यों से भी वार्तालाप नहीं करते, स्त्रियों की तो बात ही क्या है ? सदा अपने अध्ययन में रत रहते हैं । वहाँ मैंने गप्प-गोष्ठी होते नहीं देखी। राव-रंक सब समान हैं । परिग्रह के नाम पर पीछी-कमण्डलु है। जब विहार करना होता है, उठा कर चल देते हैं । न जहाँ से जाते हैं उन्हें पता, न नहाँ पहुँचते हैं उन्हें पता । न गाजे-बाजे के साथ स्वागत -सन्मान की चाह है, न साथ में मोटर, लॉरी और चौकों की बहार है, न कोई माताजी साथ में हैं । बाल शिष्य - मण्डली है ।
मैंने किसी मुनि के मुख से ऐसा भाषण भी नहीं सुना। एक-एक वाक्य में वैदुष्य झलकता है । अध्यात्मी कुन्दकुन्द और दार्शनिक समन्तभद्र का समन्वय मैंने उन्हीं के भाषणों में सुना है । मुझे उन्हें आहारदान देने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ है और मैंने प्रथम बार अपने जीवन को धन्य माना है । यदि संसार, शरीर और भोगों में आसक्त श्रावकों के मायाजाल से बचे रहे, तो वे एक आदर्श मुनि कहे जाएँगे ।
मैं भी पञ्च नमस्कार मन्त्र की जाप त्रिकाल करता हूँ। और ' णमो लोए सव्वसाहूणं' जपते समय वे मेरे मानसपटल पर विराजमान रहते हैं । जिनका मन आज के कतिपय साधुओं की स्थिति से खिन्न हो कर ' णमो लोए सव्वसाहूणं' पद से विरक्त हुआ; उनसे हमारा निवेदन है कि वे एक बार आचार्य विद्यासागरजी का सत्संग करें। हमें विश्वास है कि उनकी धारणा में परिवर्तन होगा ।
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आ.वि. सा. अंक www.jainelibrary.org