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________________ आज के स्वर्ग-सुख के कामी धर्मात्मा तो इस पर भी आपत्ति कर सकते हैं। कि उसे निष्फल क्यों करते हैं ? क्या नौ ग्रैवेयक तक जाना कोई साधारण बात है ? पञ्च परावर्तन की मर्यादा में जो आता है, मुनिपद धारण करके भी वही मिलता है तो मुनिपद को निष्फल ही कहा जाएगा । पञ्च परावर्तन से छुटकारा होना ही धर्म का सच्चा फल है; अतः आज के समय में इस क्षेत्र से मुक्ति नहीं मिलती, फिर भी मोक्ष की इच्छा रख कर ही धर्म-साधना करने में हित है। स्वर्ग-सुख की चाह भी पतन का ही कारण है। अतः सम्यक्त्व के बिना मुनिपद की भी कोई कीमत नहीं है; किन्तु सम्यक्त्व तो दुर्बोध्य होने पर भी स्वसंवेद्य है, उसके होने पर प्रशम संवेग आदि होते हैं। प्रथम प्रतिमा के धारी के तीन स्पष्ट विशेषण समन्तभद्रजी ने दिये हैं—सम्यग्दर्शन शुद्ध, संसार शरीर भोगों से विरक्त, पञ्च परमेष्ठी के चरण ही उसकी शरण हैं। प्रथम प्रतिमा आचार-मार्ग का प्रवेश-द्वार है; जिसमें कम-से-कम ये तीन बातें हों उसे ही जैन आचार-मार्ग पर चलना चाहिये। तब मुनिपद तो उच्च पद है, उसमें तो ये बातें अवश्य होनी चाहिये; किन्तु आज ऐसे भी मुनि हैं जिनमें ये मूल बातें नहीं है (१) सब से प्रथम तो मुनि को अन्य किसी भी पन्थ विशेष का आग्रह न हो कर एकमात्र वीतराग मार्ग का आग्रह होना चाहिये। तेरापन्थ, बीसपन्थये मुनियों के पन्थ नहीं हैं, गृहस्थों के हैं। वे ही द्रव्य पूजा करते हैं और उसी को लेकर ये पन्थ प्रवर्तित भी हैं; किन्तु आज गृहस्थ इन पन्थों का वैसा आग्रही नहीं है, जैसे मुनि और आचार्य हैं। उन्होंने ही इस पन्थवाद की अग्नि को प्रज्वलित किया है और ऐसा प्रतीत होता है कि यदि उनकी यह प्रवृत्ति चालू रही तो दिगम्बर-श्वेताम्बर जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। जो पन्थ का मोह नहीं छोड़ सके वे संसार के मोह से दूर नहीं हैं। कहाँ संसार और मोक्ष में समभाव का उपदेश और कहाँ पूजा के सचित-अचित द्रव्य का और जलाभिषेक पञ्चामृताभिषेक का आग्रह ! (२) दूसरी बात है शासन देवों की पूजा की प्रवृत्ति को बल देने की। कहाँ प्रथम प्रतिमाधारी को 'पञ्चगुरुचरण-शरण' होना कहा है और कहाँ जिनके चरणों को हम अपना शरण मानते हैं वे हमारे गुरु जिनेतर देवों को पूजने का उपदेश देते हैं ? क्या ऐसा करने वाले दिगम्बर जैन मुनि कहे जा सकते हैं ? जिनकी एकमात्र वीतराग देव पर आस्था नहीं है वह तो जैन कहलाने का भी पात्र नहीं हैं। जिनका देव जिन है, वे ही जैन हैं। सच्चा जैन घोर-से-घोर संकट में भी अन्य की शरण नहीं लेता। अशरण भावना का तात्पर्य ही यह है। द्यानतरायजी ने कहा है शुद्धातम अरु पञ्चगुरु जग में शरणा दोय । मोह उदयतै जीव को आन कल्पना होय ॥ तीर्थंकर : नव-दिस. ७८ १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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