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________________ आशाधरजी विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान् हैं। उस समय भट्टारक-पन्थ भी अधोगति को प्राप्त था। यद्यपि उस समय के भट्टारक नग्न ही रहते थे; किन्तु उनके आचरण म्लेच्छों के समान थे। कुछ जैन दिगम्बर मुनि भी केवल द्रव्यलिंगी थे। यहाँ आशाधरजी ने मन, वचन, काय से उनका परित्याग करने को कहा है और उन्हें पुरुषरूप मिथ्यात्व कहा है; मिथ्यात्व ने ही मानो पुरुष का शरीर धारण कर लिया है। प्राचीनकाल में तो साधुगण वन में ही वास करते थे। रत्नकरण्ड में ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के लिए कहा है—'गृहतो मुनिवनमित्वा' (अपने घर से मुनि वन में जावे); किन्तु उत्तरकाल में वनवास का स्थान, ग्रामों के समीप हो गया। इस पर से आचार्य गुणभद्र ने अपने आत्मानुशासन में खेद प्रकट करते हुए लिखा है इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्यां यथा मगाः। वनाद् विशन्त्युपग्राम कलौ कष्टं तपस्विनः॥ (जैसे रात के समय इधर-उधर से भयभीत मृग वन से ग्रामों के करीब आ बसते हैं, खेद है कि इस कलिकाल में तपस्वीजन भी वन छोड़कर ग्रामों के निकट वास करते हैं।) वनवास से चैत्यवास प्रारम्भ होने पर ही भट्टारक पन्थ ने जन्म लिया। मन्दिरों में रहने वाले साधुओं ने मन्दिरादि के निमित्त जमीन-जायदाद आदि का दान लेना स्वीकार किया और इस तरह वे दिगम्बर वेष में भट्टारक बन गये। उन्हीं के आचरण की निन्दा आशाधरजी ने की है। पं. दौलतरामजी ने छहढाला में लिखा है मुनिव्रतधार अनन्तवार वेयक उपजायो। पै निजआतमज्ञान विना सुख लेश न पायो॥ (इस जीव ने अनन्त बार मुनिव्रत धारण किये और मरकर |वेयक पर्यन्त जन्मा; किन्तु अपनी आत्मा का ज्ञान (स्वसंवेदन प्रत्यक्ष) न होने से सुख का लेश भी नहीं पाया।) यह कथन मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी के लिए है। पञ्च परावर्तन करते हुए मिथ्यादृष्टि भी द्रव्य जिनलिंग धारण करके नव ग्रैवेयक पर्यन्त जन्म ले सकता है। यहाँ द्रव्य जिनलिंग से मतलब शरीर से नग्न हो कर मुनि की तरह चर्या करना मात्र नहीं है; किन्तु एक जिनमुद्रा के धारक का जितना बाह्याचार है, वह सब वह निष्ठापूर्वक करता है। गुप्ति-समिति आदि का पूर्ण पालक होता है। सम्यग्दृष्टि मुनि से उसके बाह्याचार में कोई कमी नहीं होती। यदि कमी है तो केवल सम्यक्त्व की है। इसी से उसका सब निष्ठापूर्वक किया गया बाह्याचार भी निष्फल होता है। १२ आ.वि.सा. अंक www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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