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________________ साधु की व्याख्या पायी जाती है, उसकी परिधि में जो आता है वही 'सर्व साधु' में वन्दनीय है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यान तपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥ (जो विषयों की आशा से परे हैं, आरम्भ और परिग्रह से रहित हैं। ज्ञान, ध्यान् तप में लीन रहता है। वह तपस्वी प्रशंसा का पात्र है।) इसके विपरीत गुरुमूढ़ता का स्वरूप कहा सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाषण्डिनां पुरस्कारों ज्ञेयं पाषण्डि मोहनम् ॥ (जो परिग्रह और आरम्भ सम्बन्धी हिंसा में संलग्न हैं, संसार-रूपी भँवर में पड़े हैं, ऐसे पाखण्डियों (साधुओं) का आदर-सत्कार गुरुमुढ़ता है।) उक्त श्लोक में आचार्य समन्तभद्र ने साधु के लिए पाषण्डी' शब्द का प्रयोग किया है। प्राचीन समय में यह शब्द साधु के अर्थ में व्यवहृत होता था। अशोक के शिलालेखों में इसका प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है; किन्तु आज यही शब्द पाखण्डी के रूप में बनावटी साधुओं के लिए व्यवहृत होता है। साधुओं के कदाचार से शब्द का अर्थ ही बदल गया है; अतः सर्वसाधु में पाखण्डी साधु ग्राह्य नहीं हैं, भले ही वे नग्न रहते हों और उन्होंने जिन मुद्रा का वेष भी धारण किया हो। पं. आशाधरजी ने अपने अनगारधर्मामृत में ऐसे पाखण्डियों की निन्दा करते हुए कहा है मुद्रां सांव्यवहारिकी त्रिजगतीवन्द्यामपोद्याहतीं वामां केचिदहंयवो व्यवहरन्त्यन्ये बहिस्तां श्रिताः । लोकं भूतवदाविशन्त्यवशिनस्तच्छाधयाचापरे __ म्लेच्छन्तीह तक स्त्रिधा परिचयं पुंदेहमोहैस्त्यज ॥९६॥ (दिगम्बरत्नरूप जैनी मुद्रा तीनों लोकों में वन्दनीय है, समीचीन प्रवृत्तिनिवृत्ति रूप व्यवहार के लिए प्रयोजनीभूत है; किन्तु इस क्षेत्र में वर्तमान काल में उस मुद्रा को छोड़ कर कुछ अहंकारी तो उससे विपरीत मुद्रा धारण करते हैं-- जटा धारण करते हैं, शरीर में भस्म रमाते हैं। अन्य द्रव्य जिनलिंग के धारी अपने को मुनि मानने वाले अजितेन्द्रिय हो कर उस जैनमुद्रा को केवल शरीर में धारण करके धर्म के इच्छुक लोगों पर भूत की तरह सवार होते हैं। अन्य द्रव्य जिनलिंग के धारी मठाधीश भट्टारक हैं, जो जिनलिंग का वेष धारण करके म्लेच्छों के समान आचरण करते हैं। ये तीनों पुरुष के रूप में साक्षात् मिथ्यात्व हैं। इन तीनों का मन से अनुमोदन मत करो, वचन से गुणगान मत करो और शरीर से संसर्ग मत करो। इस तरह मन, वचन, काय से इनका परित्याग करो।) तीर्थंकर : नव-दिस. ७८ Jain Education International ११ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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