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'साधु' से 'मुनि' शब्द प्राचीन है । ऋग्वेद में 'मुनयोवातरशना' के द्वारा वातरशन (दिगम्बर) मुनियों का उल्लेख मिलता है। इसके सिवाय जिनागम में ओंकार में पञ्चपरमेष्ठी को समाविष्ट माना है। पञ्चपरमेष्ठी के वाचक पाँच शब्दों के आद्य अक्षरों को मिलाकर 'ओम्' बना है। अरहंत (अ), अशरीर-सिद्ध (अ), आचार्य (आ), उपाध्याय (उ), मुनि (म्) = (अ+आ+आ+उ+म् =ओम् ) इसमें भी मुनि पद का म लिया है; अत: कम-से-कम 'साहूणं' तो अतिप्राचीन प्रतीत नहीं होता।
इस अंतिम पद में दो शब्द अधिक हैं--लोए और सव्व । उनको मिलाकर अर्थ होता है-लोक के सर्व साधुओं को नमस्कार हो । षट्खण्डागम की धवला टीका के आरंभ में पञ्च नमस्कार मंत्र की व्याख्या शंका-समाधानपूर्वक विस्तार से की गयी है। उसमें स्पष्ट किया है कि ये दोनों शब्द देहली-दीपक न्याय से पूर्व के भी चारों पदों में संयुक्त होते हैं, अर्थात् लोक के सब अरहंतों को नमस्कार हो, लोक के सब सिद्धों को नमस्कार हो, लोक के सब आचार्यों को नमस्कार हो; लोक के सब उपाध्यायों को नमस्कार हो; लोक के सब साधुओं को नमस्कार हो ।
आज के कुछ विवेचक इन दोनों पदों पर आपत्ति करते हैं कि इनकी क्या आवश्यकता है ? जैनागम के अनुसार 'लोक' केवल आज की दुनिया जितना ही नहीं है। उस सब लोक के सब परमेष्ठियों को नमस्कार करने के लिए ये पद दिये गये हैं। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में इसे सुस्पष्ट किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचन सार के प्रारम्भ में भी पृथक्-पृथक् पञ्च परमेष्ठियों को नमस्कार किया है। वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करने के अनन्तर ही उन्होंने मनुष्य-लोक में वर्तमान अरहन्तों को नमस्कार किया है। यही भावना लोए और सव्व पद में समाविष्ट है। उसी भावना के अनुसार स्वामी कुन्दकुन्द ने भी नमस्कार किया है।
आज के समय में एक नयी आपत्ति 'साहू' के साथ सम्बद्ध 'सव्व' पद पर सुनने में आती है। वह आपत्ति यह है कि इसमें सब साधुओं को नमस्कार किया है। उसमें आज के भी सब साधु आ जाते हैं। उनमें सभी तो वन्दनीय नहीं हैं। तब उन्हें कैसे नमस्कार करें? इस आपत्ति के कारण कुछ लोगों ने इस अन्तिम पद को ही अलग कर दिया है; वे उसे पढ़ते नहीं हैं, ऐसा भी हमने सुना है । श्री. · तक के सम्बन्ध में यह चर्चा सुनी है, क्योंकि वे णमोकार मंत्र के अन्तिम पदों को सुस्पष्ट नहीं बोलते, जैसा आद्य पदों को बोलते हैं । उस पर से लोग अपने मन से कल्पना कर लेते हैं; अतः इस स्थिति पर प्रकाश डालना हमें आवश्यक प्रतीत हुआ है। उसी के लिए यह प्रयत्न है।
'साधु' शब्द तो लोक-प्रचलित है। सभी सम्प्रदायों में इसका व्यवहार अपनेअपने सम्प्रदाय के साधु के लिए होता है। प्रायः सब साधु गृहत्यागी होते हैं और अपनेअपने ढंग से साधना करते हैं। नंगे रहते हैं या लंगोटी लगाते हैं, भभूत मलते हैं, सुलफा पीते हैं। हाथी-घोड़े रखते हैं। कुम्भ के मेले में तरह-तरह के साधुओं को देखा जा सकता है; किन्तु 'सर्वसाधु' पद की मर्यादा में वे सब नहीं आते। जैन ग्रंथों में सच्चे
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आ.वि.सा. अंक
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