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लेखन एवं अनुवाद किया जिनमें से निम्न ग्रन्थ प्रमुख हैं:-(१) मोक्षमार्ग प्रदीप, (२) ज्ञानामृतसार (३) लघुबोधामृतसार, (५) निजात्मविशुद्धिभावना, (५) शान्तिसागर-चरित्र आदि।
पूज्य उपाध्याय विद्यानन्दजी (शेडवाल, १९२५ ई.) वसुधैवकुटम्बकम् के विश्वासी सन्त हैं। यही कारण है कि उनके प्रवचनों में कुछ ऐसी गूंज रहती है कि हिन्दू, मसलमान, पारसी, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, हरिजन, दलित, पतित, दुःखी, सुखी, गरीब, अमीर, देशी, विदेशी सभी अपने-अपने मन की सुख-शान्ति प्राप्त करते हैं। चाहे जैन मन्दिर हो, चाहे हिन्दू मन्दिर हो और चाहे मस्ज़िद, गुरुद्वारा, या गिरजाघर, मुनिश्री को सर्वत्र अपरिमित श्रद्धासिक्त सम्मान मिलता है। अपनी मधुर एवं कल्याणकारी प्रवचन-शैली के कारण हम उन्हें वर्तमानकालीन समन्तभद्र कहें या अकलंक ; विद्यानन्द अथवा कलिकाल चक्रवर्ती हेमचन्द्र ? वे साधु-आचार में प्रमाद-विहीन, सरस्वती की उपासना में अखण्डरत विद्वानों के प्रति सहृदय, समाज के परम हितैषी तथा पथ-प्रदर्शक, कलम के धनी, दूरदृष्टा, एवं वाणी के जादूगर हैं। उनके व्यक्तित्व के चित्रण के लिए एक गहरी साधना तीक्ष्ण प्रतिभा एवं विराट व्यक्तित्व की आवश्यकता है। वीर निर्वाण भारती, ऋषभदेव संगीत-भारती, कुन्दकुन्द भारती शोध-संस्थान, वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति जैसी संस्थाएँ उनकी जिनवाणी के उद्धार सम्बन्धी भावनाओं की प्रतीक संस्थाएँ हैं। उनके द्वारा लिखित लगभग ३० ग्रन्थों में से विश्वधर्म की रूपरेखा, पिच्छी और कमण्डल, कल्याणमनि और सिकन्दर, समयतार, ईश्वर क्या और कहाँ है ? देव और पुरुषार्थ; आदि प्रमुख हैं।
अन्य विद्वान् मुनियों ने नेमिसागरजी (पठा, टीकमगढ़) कृत श्रावक धर्म दर्पण, हरिविलास, प्रतिष्ठासार-संग्रह तथा मुनि ज्ञानसागर (रातोली, जयपुर) ने लगभग २२ ग्रन्थों की रचना की जिनमें से निम्न प्रमुख हैं:-(१) दयोदय (धीवर कथा), भद्रोदय (सत्यघोषकथा), सुदर्शनोदय, जयोदय, वीरोदय, प्रवचनसार (हिन्दीपद्यानुवाद), समयसार (हिन्दी-पद्यानुवाद), ऋषभावतार, गुणसुन्दर वृत्तान्त, तत्त्वार्थसूत्र टीका, सचित्त-विवेचन, नियमसार, देवागम स्तोत्र, स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन धर्म ।
पण्डिताचार्य पूज्य चारुकीत्ति जी महाराज (मडबिद्री) से इन पंक्तियों के लेखक का परोक्ष परिचय सन् १९७५ से तथा साक्षात् परिचय सन् १९७६ से है। इस बीच में उनसे पर्याप्त पत्र-व्यवहार एवं साक्षात् विचार-विमर्श हुआ है। उन प्रसंगों में हमने अनुभव किया है कि जैन-समाज के उत्थान एवं जैनविद्या के प्रचारप्रसार के लिए उनका समस्त जीवन समर्पित है। सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं के वे साक्षात् प्रतिरूप हैं। हस्तलिखित ग्रन्थों के उद्धार एवं प्रकाशन के लिए वे निरन्तर चिन्तित रहते हैं। इस महान कार्य के लिए उन्होंने अपने अथक प्रयासों से श्रीमती
तीर्थंकर : जन. फर. ७९/४९
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