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स्व. पं. परमेष्ठीदासजी (महरौनी, उ. प्र. १९०७-१९७८ ई.) जैन-समाज के सुधारवादी निर्भीक विद्वानों में अग्रगण्य रहे हैं। महात्मा गांधी के राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेकर उन्होंने अनेक बार जेल यात्राएँ की; किन्तु भारत के स्वतन्त्र होते ही वे जैन समाज के सुधारवादी आन्दोलनों में व्यस्त हो गये। उन्होंने जैन सिद्धान्तों एवं पुरानों का गहन अध्ययन कर यह सिद्ध किया कि मृतक-भोज, पर्दा-प्रथा, शूद्र-जलत्याग, दस्सापूजाविरोध जैसी परम्पराएँ जैन शास्त्र विरोधी हैं। विजातीय एवं अन्तर्जातीय विवाहों को भी उन्होंने शास्त्र-विरोधी नहीं माना । एतद्विषयक अपने विचारों के समर्थन में उन्होंने जैन-साहित्य से संकलित प्रमाणों के आधार पर -- (१) विजातीय विवाह-मीमांसा (२) मरण-भोज, (३) दस्साओं का पूजाधिकार जैसे ग्रन्थों का प्रणयन किया।
सन् १९४० ई. के पूर्व किसी रियासत ने अपने राज्य में दि. जैन मुनियों के विहार पर रोक लगा दी थी तब पं. परमेष्ठीदास ने महात्मा गांधी को सहमत कर मुनियों के दिगम्बरत्व पर उनका प्रशंसात्मक वक्तव्य प्रसारित कराया और ऐसा आन्दोलन किया कि रियासत को अपना कलंकपूर्ण आदेश वापिस लेना पड़ा था।
__ पण्डितजी की उक्त सेवानिष्ठ प्रवृत्तियों का यह अर्थ नहीं कि उन्होंने जैन सिद्धान्त पर कोई कार्य ही नहीं किये। इस क्षेत्र में भी उनके अवदान विस्मृत नहीं किये जा सकते। एतद्विषयक उनके ग्रन्थों में चर्चासागर समीक्षा, ज्ञान विचार समीक्षा, पद्मनन्दीश्रावकाचार, परमेष्ठी पद्यावली, चारुदत्तचरित्र, सुधर्म श्रावकाचार नामक समीक्षात्मक मौलिक तथा अनूदित ग्रन्थों में समयसार, प्रवचनसार एवं मोक्षशास्त्र प्रसिद्ध है।
डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन (नरयावली, सागर, १९२१ ई.) नवीन पीढ़ी के ऐसे वरिष्ठ साहित्यकार एवं विचारक विद्वान् हैं जिनका जैनधर्म, दर्शन, साहित्य एवं व्याकरण जैसे-विषयों पर समानाधिकार है। वे अच्छे वक्ता एवं लेखक भी हैं। अपनी विद्वत्ता के कारण उन्हें इस वर्ष (१९७८ ई.) ऑल इंडिया ओरियण्टल कान्फ्रेस के प्राकृत तथा जैनविद्या विभाग की अध्यक्षता करने का सम्मान मिला है। डॉ. जैन की अनेक कृतियों में अंग साहित्य के आधार पर मानव-व्यक्तित्व का विकास, श्रमण संस्कृति, संस्कृत गद्यकलिका नामक कृतियाँ सुप्रसिद्ध हैं।
जिनवाणी-सेवियों में मुनियों, आर्यिकाओं एवं व्रतीजनों के पाण्डित्य का स्मरण भी अत्यावश्यक है। ऐसे महामति विद्वान् साधुओं में प्रातःस्मरणीय चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी (भोजगाँव, दक्षिण वि. सं. १९२९-२०१२) का नाम सर्वप्रमुख है। उनकी प्रेरणा एवं आशीर्वचन से अनेक व्यक्ति विद्वान् बन गये तथा उनकी प्रेरणा से उन्होंने विविध जैन ग्रन्थों पर कार्य किये ऐसे अनेक विद्वानों में आचार्य चन्द्रसागरजी तथा कुन्थुसागरजी प्रमुख हैं। शौरसेनी जैनागमों के उद्धार एवं प्रकाशन में आपका आशीर्वाद ही प्रमुख कारण बना।
आचार्य कुन्थुसागरजी ने एक ओर साधु आचार के पालन में अपने समय एवं शक्ति का सदुपयोग किया, दूसरी ओर आपने लगभग ४० ग्रन्थों का सम्पादन
तीर्थ कर : जन. फर. ७९/४८
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