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संदर्भ : दिग. जैन पण्डित
जैन विद्या : विकास-क्रम/कल, आज (६)
डॉ. राजाराम जैन
गुरूणां गुरु पूज्य पं. गणेशप्रसादजी वर्णी समस्त जैन समाज के हृदय-सम्राट माने जाते हैं। घर-घर में जैनधर्म का अलख जगाने के लिए उन्होंने जैन विद्यालय खोलने का नारा लगाया और देखते-देखते ग्रामों, नगरों एवं शहरों में सहस्रों की संख्या में पाठशालाएँ, विद्यालय एवं महाविद्यालय स्थापित हो गये। आज जो भी विद्वन्मंडली समाज में वर्तमान है, वह पं. गोपालदास बरैया एवं पं. गणेशप्रसाद वर्णी की दूरदृष्टि के कारण है। वर्णीजी का व्यक्तित्व बहुमुखी था। अन्य सेवाओं के साथसाथ जिनवाणी-सेवा का कार्य प्रमुख मान कर उन्होंने कुन्दकुन्दकृत समयसार का गहन स्वाध्याय किया तथा यह निष्कर्ष निकाला कि समयसार ज्ञान-विज्ञान का अद्भुत विश्वकोश है। प्रत्येक मुमुक्षु को उसका स्वाध्याय करना चाहिये। उन्होंने स्वयं उसके चिन्तन-मनन के बाद भाष्य लिखा, जो अत्यन्त लोकोपयोगी सिद्ध हुआ। उनके अन्य सरस, मार्मिक एवं प्रेरणा प्रदान करने वाले ग्रन्थों में मेरी जीवन गाथा है। उनके प्रवचनों एवं आध्यात्मिक पत्रों के संकलन वर्णी-वाणी एवं वर्णी-पत्रावली के नाम से सुप्रसिद्ध हैं।
प्रो. खुशालचन्द्र गोरावाला (गोरा, उ. प्र. १९१७ ई.) जैन समाज की उन विभूतियों में से हैं, जिन्होंने मानव-कल्याण के लिए खोने में ही अधिक विश्वास किया है, पाने में नहीं। भारत-माता की परतन्त्रता की बेड़ी काटने के लिए गोरावाला ने परम्परा-प्राप्त समृद्धि खोयी, परिवार का विश्वास खोया, राष्ट्रीय संस्था (काशी विद्यापीठ) की सेवा के लिए सवैतनिक नौकरी छोड़ कर अवैतनिक सेवा स्वीकार की, और यदि हितैषीगण हस्तक्षेप न करते तो वे शायद बाल ब्रह्मचारी रह कर मानव-सेवा हेतु भभूत रमा कर बिहार करते रहते। शिवप्रसाद गुप्त, श्री श्रीप्रकाश, पं. गोविन्द वल्लभ पन्त, रफी अहमद किदवई, सम्पूर्णानन्द प्रभृति देश के बड़े-बड़े नेताओं के साथ घनिष्ठ सम्पर्क होने पर भी उन्होंने उनसे कभी कुछ चाहना नहीं की।
___ संस्कृत-प्राकृत भाषाओं एवं जैनधर्म-दर्शन में पण्डितजी की अबाध गति रही है। जैन संस्कृत साहित्य के भी वे मर्मी विद्वान् हैं। वरांगचरित काव्य एवं द्विसन्धानकाव्य का सर्वप्रथम सम्पादन-अनुवाद, खारवेल शिलालेख का हिन्दी अनुवाद तथा तुलनात्मक अध्ययन उनके पाण्डित्य के ज्वलन्त प्रमाण हैं।
तीर्थंकर : जन. फर. ७९/४७
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