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टिप्पणियाँ
१. स्वर्ग और नरक एक सत्य है।
नास्तिकवाद की बात छोड़ दीजिये। वह तो आत्मा को भी नहीं मानता। इससे क्या आत्मा और परमात्मा नाम का पदार्थ विलीन हो जाएगा? दार्शनिक चर्चा की भी ज़रूरत नहीं; सिर्फ अनुभवज्ञान की कसौटी पर ही परखा जाए तो 'आत्मतत्त्व' ध्रुव सत्य ठहरता है। यह शाश्वत और अविनश्वर है। देश और काल की सीमा से अतीत सभी अनुभवज्ञानी सन्त, महात्मा एवं महापुरुषों ने इसके अस्तित्व को न केवल स्वीकार ही किया है, अपितु इसकी महती विशिष्टताओं-'परमात्म दशा' आदि-का साक्षात् अमृत-पान भी किया है।
___ 'आत्मा' ज्ञान गुणमय है। इसका ज्ञान असीम एवं अनन्त भी हो सकता है। उस सीमातीत आलोक में विश्व की अगण्य विचित्रताएँ स्वभावतया झलकती हैं। स्वर्ग, नरक, आकाश, पाताल, जल, थल, जीव, अजीव, मनुष्य, तिर्यंच, देव, नारक, जन्म, मरण, सुख, दुःख, उत्थान, पतन आदि असंख्य विस्मयों की रंगभूमि यह 'विश्व' दीखे बिना नहीं रहता।
जब 'आत्मा' या 'अहं' यानी हम एक साक्षात् अनुभूत सत्य हैं, हम कहीं से आये हैं और यहाँ से मरने के बाद किसी निश्चित स्थान पर अपनी करनी के मुताबिक जन्म लेने को बद्ध हैं (यह एक अनुभूत सत्य है, जिसको किसी भी हालत में नकारा नहीं जा सकता) तब यह न्यायसंगत ही है कि हम अपनी भूतकाल की लम्बी मुसाफिरी में-नरक, निगोद, त्रस, स्थावर, पशु, पक्षी, मनुष्य और देवों की भूमियों में न जाने कितनी-कितनी बार जन्म-मरण की फेरी लगा कर आये हैं !
यह नियम है कि जीव, या आत्मा जैसा करता है वैसा भरता है; अर्थात् यह वस्तु-स्वभाव या प्राकृतिक नियम है। जिस प्राणी ने हिंसादि घोर पापों का सेवन खूब पेट भर के यहाँ किया है। उसने अपने अति कलुष परिणामों द्वारा अति कलुष कर्म-रज या सूक्ष्म परमाणु अपनी आत्मा पर उसी क्षण चिपकाये हैं। जो स्थिति पकने पर वैसी ही कलुषतम रज जिस स्थान पर है उसी स्थान पर उस आत्मा को जन्म के रूप में बलात् खींच कर खड़ा कर देगी। वह भी क्षणमात्र में, भले दूरी चाहे कितनी ही लम्बी क्यों न हो? महर्षियों की वाणी है
'वृक्षांश्छित्वा पशुं हत्वा, कृत्वा रुधिर कर्दमम् ।
यद्येवं गम्यते स्वर्गे, नरके केन गम्यते ॥' कार्मण अणुओं की, जो अद्यतन विज्ञान द्वारा शोधित अणुओं से भी अनन्त गने अधिक सूक्ष्म एवं कार्यकारी होते हैं, अनन्त विचित्रताएँ हैं। यही परमाणु या तत्त्व जीव को स्वर्ग-नरकादि नाना स्थितियों में पूर्वसंचित कर्म-रज या अणुओं के
तीर्थंकर : जन. फर. ७९/४४
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