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ज़िन्दगी जिन्दादिली का नाम है रोते हुए रिसना रिसते हुए रोनायह सदा से कायरों का काम है
आदमी हो आदमी की तरह जीना
जरा जानो
- नरेन्द्र प्रकाश जैन
रात-दिन आंसू बहाकर शक्ति क्यों तुम हो गँवाते ? कसाई के शिकंजे में कसी उस गाय-से क्यों नित रंभाते ? अक्ल के तुम पूत हो शक्ति-साहस-धर्य के भण्डार-धाम अकूत हो जरा-सा झटका लगा बस रो दिये ईश्वरी वरदान सारे खो दिये
नहीं 'उफ्' मुंह से कहें ऐसा कहाँ लेखा गया है ? इंसान ही बस . एक ऐसा जीव है जो दुखों में आपत्तियों में संकटों में भी कभी बाजी नहीं है हारता रहता सदा सप्राण है यह प्रकृति का पुतला कहो, कितना विलक्षण!
मिनमिनाना बकरियों को भला लगता चिरैयों को ठीक दिखता तुम मनुज हो तुम्हें शोभा नहीं देता जन्तुओं की भांति रोना-चीखना। खिलखिलाना, यह तुम्हारी शान है हँसना-हँसाना मनुज की पहचान है।
हंसो प्यारे मुस्कराओ तो जरा छंट जाए कुहरा भागे जहाँ से अब उदासी का अँधेरा हो सुघड़-प्यारा सवेरा
इधर देखो यह अकेला
जानवर हंसते हुए क्या कभी देखे गये हैं ? मौन रह चोटें सहे
(शेष पृष्ठ ४६ पर)
तीर्थंकर : जन. फर. ७९/४३
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