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रुढ़ि के ताले ऐसे खुलते हैं
___पुना के एक भाई बड़े मसखरे थे। लंबे प्रवास के बाद घर आये तो देखते हैं कि घर का ताला नहीं खुलता। क्या किया जाए ? नाराज होने से ताला थोड़े ही समझने वाला था। पर वे नाटकीय स्वर में बोले-'अरे कम्बख्त ताले, मैंने तुझे पूरे दाम देकर खरीदा था। मैं तेरा मालिक हूँ। तू मेरा क्रीत दास है। मैं दो महीने बाहर क्या गया, तू मुझे भूला ही बैठा ! ठहर, अब मैं तुझ पर स्नेहप्रयोग करता हूँ। खोल तो जरा अपना मुंह ।' और उन्होंने तेल की दो-तीन बूंदें ताले में डालकर फिर चाबी घमायी। ताला तुरन्त खुल गया। घर के सब लोग, जो बाहर प्रतीक्षा में खड़े-खड़े तंग आ गये थे, प्रसन्न हो गये। और उसी शुभ प्रसन्नता के साथ उन्होंने गृह-प्रवेश किया। हमारे सामाजिक जीवन में रूढ़ि के ताले ऐसे ही खुल सकते हैं। 00
परिगणित जाति-आयोग' के काम से हम मुसाफिरी कर रहे थे। रास्ते में एक साथी की पेटी गायब हो गयी। वे बहुत बिगड़े, सब पर नाराज हुए। आखिरकार मेरे पास आये। ऊँची आवाज में उन्होंने सारा किस्मा कह सुनाया। मैंने शान्ति से कहा-'बड़े अफसोस की बात है कि आपने अपनी पेटी खोयी; लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि अपनी पेटी के साथ आप अपना मिजाज भी क्यों खो बैठे हैं ? यह सुनकर वे हँस पड़े। उन्हें खोया हुआ मिजाज तुरन्त मिल गया। और काफी कोशिश के बाद उनकी पेटी भी मिल गयी। 00
कभी किसी ने गाँधीजी से पूछा-'आपकी राय में विनोद का जीवन में कितना स्थान हो सकता है ?' गाँधीजी ने कहा-'आज तो मैं महात्मा बन बैठा हूँ; लेकिन ज़िन्दगी में हमेशा कठिनाइयों से लड़ना पड़ा है। क़दम-कदम पर निराश होना पड़ा है। उस वक्त अगर मुझमें विनोद न होता, तो मैंने कब की आत्महत्या कर ली होती। मेरी विनोद-शक्ति ने ही मुझे निराशा से बचाया है।' इस जवाब में गाँधीजी ने जिस विनोद शक्ति का विचार किया है, वह केवल शाब्दिक चमत्कार द्वारा लोगों को हँसाने की बात नहीं है, बल्कि लाख-लाख निराशाओं में अमर आशा को जिन्दा रखने वाली आस्तिकता की बात है। छोटे बच्चे जब गल्तियाँ करते हैं, शरारतें करते हैं, तब हम उन पर गुस्सा नहीं करते। मन में सोच लेते हैं कि बच्चे ऐसे ही होते हैं, इसमें मिजाज खोने की बात क्या है। जब ये होश संभालेंगे, अपनी गल्तियाँ अपने आप ही समझ लेंगे। सुधारक के हृदय में यह अटूट विश्वास होना चाहिये कि दुनिया धीरे-धीरे जरूर सुधर जाएगी वह भी बच्चा ही तो है।
काका-कालेलकर
तीर्थंकर : जन. फर.. ७९/४०
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