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उलझनें पथ का रोड़ा बनेंगी और यदि इनसे डरे, थके, और रुके, तो रुक ही गये। इसी रुकने का नाम ही तो पराजय है। पराजय बाह्य नहीं आन्तरिक क्षमताओं की, जीवन को गतिशील बनाने वाले तत्त्वों की पराजय है। यही विनाश है। यही मृत्यु है। तन की मृत्यु की परवाह फिर क्यों होनी चाहिये ? तन तो जलकर राख हो जाता है, पर मन की मृत्यु तो व्यक्ति को तिल-तिल जलाती है और उसके उठते धएँ से व्यक्ति न तो जी पाता है, न मर पाता है। पूर्णाहुति अथवा पूर्ण अन्त अच्छा है पर अधर में लटके हुए त्रिशंकु की-सी स्थिति तो बेहद त्रासदायक होती है। जीवन का अहसास साथ है, अपार लालसाएँ और कामनाएँ उठ-उठ कर जीवन को आन्दोलित कर रही हैं, पर हम हैं कि भारी मन लिये अपने कंधों पर संज्ञाशून्य से अपनी ही लाश ढोये चले जा रहे हैं।
____ जीवन का हर क्षण इतना बहुमल्य होना चाहिये कि हमें स्मरण ही न होने पाये कि अगला क्षण हमारी ज़िन्दगी का कैसा होगा? हम बाद के लिए, अपने वर्तमान की आहुति क्यों दें? इसीलिए तो मृत्यु-पथ के दावेदार पथिक श्री रांगेय राघव अपने अन्तिम दिनों में मृत्यु के उस अहसास को अपने इस अहसास में समेट सके
में पूछता हूँ सबसे गर्दिश कहाँ थमेगी जब मौत अाज की है दो पल है जिन्दगी के धोखे का डर करूं क्या ? रुकना न कहीं हैं और फिर वे यह कह कर मृत्यु का स्वागत करते हैंयह जान लो तुम दाह केवल सांत्वना है सत्य केवल यातना हैं इसलिए यातना से, अर्थात् मृत्यु से डर कैसा?
(हँसते-हँसते मृत्यु-वरण : पृष्ठ ३६ का शेष) मैं चिन्तन के इस दौर से गुजर रहा हूँ। बहुत आनन्दित हूँ। अब मैं मृत्यु की आहट की प्रतीक्षा में हूँ। भारंडपक्षी की तरह मेरी आत्मा निरन्तर जाग रही है कि कहीं मृत्यु बिना देखे ही न निकल जाए । इसे तुम आत्महत्या न कह देना। यह आत्महत्या शब्द ही ग़लत है। आत्मा की क्या हत्या? मैं आत्म-जागरण कर रहा हूँ।
और उसमें यदि यह शरीर मेरा साथ न दे, तो यह इस भौतिक पदार्थ की निस्सारता है। आत्मा का अमरत्व · · · · · पुनश्च प्रिय मित्र
तुम्हें अपने गुरु-भ्राता आशीष की तो याद होगी। वही मैं अब तुम्हें निवेदन कर रहा हूँ कि तुम्हारे लिए पूज्य पिताजी उपर्युक्त पत्र भी लिख पाये थे और उनकी आत्मा अमरत्व को प्रात हो गयी । तुम्हारे जिज्ञासा-भरे पत्र के लिए हम सब आभारी हैं।
तुम्हारा-आशीष
तीर्थंकर : जन. फर. ७९/३९
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