________________
उसका स्वागत करने के लिए स्वयं को ऐसे ही प्रस्तुत कर दिया जैसे कोई अपने अतिथि का स्वागत करने के लिए द्वार पर खड़ा होता है। किसी ने सत्य ही कहा है - 'जीवन एक अल्प दिवस है; किन्तु वह कार्य दिवस है । जीवन के थोड़े से सार्थक दिन अधिक बेशकीमती होते हैं ढेर से निरर्थक दिनों की अपेक्षा | ज़िन्दगी और मौत के दस्तावेज के सुप्रसिद्ध लेखक विमल मित्र ने अपनी प्रस्तुति में एक कथा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि सर्वप्रथम ईश्वर ने पृथ्वी की सृष्टि की ओर उन्होंने चार प्रकार के जीवों की रचना की जिनमें मनुष्य, गधा, कुत्ता और गिद्ध थे। चारों प्राणियों को उन्होंने जीवन के चालीस वर्ष दिये और चालीस वर्षों के पश्चात् यह भी बतलाया कि कोई भी जीवित नहीं रहेगा। सभी मृत्यु को प्राप्त होंगे । भगवान् का आदेश सबको मानना ही था; किन्तु मनुष्य था सबसे चालबाज़ उसके दिमाग़ में एक कुबुद्धि उपजी । उसने गधे से कहा- 'भाई गधे तुम चालीस वर्षों की परमायु लेकर क्या करोगे ? तुम्हें तो ज़िन्दगी-भर बोझ ही ढोते रहना है । इससे तो अच्छा है कि अपनी जिन्दगी के बीस वर्ष तुम मुझे दे दो । 'गधे ने कुछ सोचा और तैयार हो गया। इसके बाद मनुष्य ने कुत्ते और गिद्ध के सामने भी यही प्रस्ताव रखा। वे भी सहमत हो गये । अब मनुष्य की आयु लगभग सौ वर्ष हो गयी, किन्तु उसके जीवन की यह लिप्सा ही उसके पतन का कारण बनी । वस्तुत: वह अपने जीवन के केवल चालीस वर्षों तक ही मनुष्य बना रहता है । इसके बाद तो उसका जीवन गधे की तरह और फिर कुत्ते और गिद्ध की तरह ही है । उसके अन्तिम समय में विवशता, दुत्कार और लांछना ही शेष रह जाती है । उसकी कामनाओं का यह कैसा दारुण अन्त है ! किन्तु नहीं, विमल मित्र का कहना है कि मैंने यदि कभी भी प्रीति की अपेक्षा प्रयोजन को ही अधिक प्रधानता दी हो, यदि कभी भी चिरकाल के बजाय क्षण-काल को अधिक प्रश्रय दिया हो, यदि शारीरिक क्लान्ति के कारण कभी भी मैं कर्त्तव्य - भ्रष्ट हुआ होऊँ, परमार्थ को अस्वीकार कर यदि कभी भी मैंने अर्थ को गुरुत्व देकर साहित्य को व्यवसाय बनाया हो, दूसरे की अख्याति से यदि कभी भी मन के किसी कोने मैं बिन्दु मात्र तृप्ति का अनुभव किया हो, तो है प्रभो ! तुम मुझे क्षमा मत करो, मेरा विचार करो । यहीं मृत्यु का वह सत्य है जो जीवन का सत्य बन जाता है । जहाँ मृत्यु हार बैठती है और जीवन जीत जाता है ।
इसीलिए तो कहा गया है- 'जीवन का हर क्षण जीवन्त होना चाहिये । महापुरुषों ने ऐसा ही जीवन जिया है। संतों, भक्तों और मनीषियों ने अपने जीवन केक्षण क्षण को अपने कार्यों में साकार किया है, तभी तो वे मृत्यु को जीत सके । जीवन से हारा हुआ व्यक्ति ही तो मृत है; मृत अर्थात् जिसमें जीवन की धड़कनें न हों, ऐसा थका, निराश, हताश और अकर्मण्य व्यक्ति ही तो मृत्यु की यातना झेलता है और हर क्षण टूटता-बिखरता हुआ मृत्यु का दारुण अहसास भोगता है । ज़िन्दगी है तो विषमताएँ होंगी ही । कठिनाइयाँ जीवन-पथ पर आकर रहेंगी ।
तीकर : जन. फर. ७९ / ३८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org