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जीवन : हरा हर पल, भरा हर पल जिस तरह हम अपने जीवन को वर्ष-वर्ष में व्यतीत करते हुए वर्षगाँठ की खुशियाँ मनाते हैं, उसी तरह हँसकर, मुस्कराकर मृत्यु का स्वागत क्यों नहीं करते ? नहीं करते, इसीलिए हम मत्यु से भयभीत होकर महापुरुषों से अलग एक अतिसामान्य ज़िन्दगी का वरण करते हैं।
0 डा. कुन्तल गोयल जिस तरह जीवन सत्य है, उसी तरह यह भी सत्य है कि मृत्यु अनिवार्य है। मृत्यु अवश्यम्भावी है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी होगी। जन्म और मृत्यु ये जीवन के ऐसे दो छोर हैं, जिन्हें छूने के लिए व्यक्ति को बाध्य होना ही पड़ता है; और व्यक्ति एक छोर पकड़कर दूसरे को नकारना चाहता है। व्यक्ति केवल जीना चाहता है और उसके जीने की इच्छा कभी नहीं मरती। इस जीने की इच्छा के कारण ही वह नाना प्रकार की इच्छाओं को पालता है, सुनहले स्वप्न देखता है, और सुन्दर भविष्य की योजनाओं का निर्माण करता है। यह अपने जीवन को पूरी तरह उसमें गहरे लिप्त होकर भोगना चाहता है और जीवन के इसी भोगने की उद्दाम लालसा में वह बिल्कुल भूल जाता है कि जिस तरह जीवन मत्य है, उसी तरह तो मृत्यु भी सत्य है। जीवन की चाह में जहाँ उसकी चाह शक्ति का पर्याय बन जाती है, वह मदान्ध हो उठता है और अविवेकी हो बैठता है। और यही सब अनर्थ का कारण बन जाता है। जीवन के क्षणों में आज हम जीवनदर्शन को एक दूसरे ही रूप में देख रहे हैं, जहाँ केवल छल है, छद्म है और केवल धोखा-ही-धोखा है। हम जो कुछ कह रहे हैं, जो कुछ कर रहे हैं, वह सारा-का-सारा धोखा है। अपने ग़लत विचारों, गलत व्यवहारों, और ग़लत कार्यों का ही परिणाम है कि हमने इसे ही जीवन का सत्य मान लिया है और अपनी जिजीविषा को बढ़ाये चले जा रहे हैं और अपने जीवन को यंत्रणापूर्ण राह पर घसीटते हुए लिये चले जा रहे हैं।
जिस तरह जीवन स्वागत-योग्य है और जिस तरह हम अपने जीवन को वर्ष-वर्ष में व्यतीत करते हुए वर्षगाँठ की खुशियाँ मनाते हैं, उसी तरह हँस कर, मुस्कराकर मृत्यु का स्वागत क्यों नहीं करते? नहीं करते, इसीलिए हम मृत्यु से भयभीत होकर महापुरुषों से अलग एक अतिसामान्य ज़िन्दगी का वरण करते हैं : जितने भी महापुरुष हुए हैं, वीर-शहीद हुए हैं, उन्होंने ज़िन्दगी की तरह ही मृत्यु को भी प्यार और सम्मान की दष्टि से देखा है। कविवर पन्त ने अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व यह कहा था-'मृत्यु का तो एक निमिष निश्चित है। मृत्यु के उस निश्चित एक निमिष के लिए ऐसा-वैसा सोच-सोचकर जीवन के जीवन्त हज़ारहज़ार पलों को हम मृतवत् क्यों बना लें ?' और ऐसा कह कर उन्होंने मृत्यु के समक्ष
तीर्थकर : जन. फर. ७९/३७
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