________________
अनुभव होने लगेगा कि यही सब कुछ मैंने पिछले जन्मों में कितनी ही बार भोगा है । पर उससे मिला क्या है ? भोग से भी कुछ नहीं मिला और योग से भी कुछ नहीं । पाप से भी कुछ नहीं और पुण्य से भी कुछ नहीं । ऐसे व्यक्ति के लिए फिर एक ही रास्ता है - हँसते-हँसते मृत्यु - वरण । अदृश्य आत्मत्व को दृष्टिगोचर करने का जैसा कि तुम्हें माउण्टआबू देखने का ही विकल्प बचा था ।
यह सब पढ़कर तुम सोचोगे कि तुम्हारे इस बूढ़े आचार्य को हो क्या गया है ? पहले मैं जब कभी बीमार पड़ता था तो तुरन्त अच्छा होने के लिए तुम सबसे कितनी सेवा कराता था ? कहता रहता था कि अभी मेरी मृत्यु न आये । वास्तव में तब मुझे भय लगता था कि कहीं मैं मर गया तो मेरे प्रिय शिष्यों का जीवन कौन बनायेगा ? इस आश्रम को आगे कौन चलायेगा ? आदर्श शिक्षण की यह परम्परा जीवित कैसे रहेगी ? पर अमित, यह सब भ्रम था । अज्ञान था । तब मैंने वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझा था ।
तुमने अपने इस पत्र में यही तो प्रश्न उठाया है कि सब परिवर्तित हो रहा है। पूर्वी सभ्यता में भौतिकता बढ़ रही है । पश्चिमी देशों में आध्यात्मिकता के प्रति आकर्षण है । व्यक्ति दिनोंदिन आत्मनिष्ठ होता जा रहा है । परार्थ की भावना संकुचित हो रही है । यह सब क्यों है ?
सच पूछो अमित, तो यह प्रश्न ही पूछने लायक नहीं है । यह मैं अब कह रहा हूँ। पहले पूछते तो शायद इन सब प्रश्नों पर विस्तार से भाषण दे डालता ; किन्तु अब लगता है कि मृत्यु की तरह यह सब परिवर्तन भी अनिवार्य हैं और जो मृत्यु से भयभीत नहीं है, उसे इस परिवर्तन से भी कोई खतरा नहीं है । वस्तुतः हमारे सारे पछतावे, अधिकांश दु:ख इसी परिवर्तन के ही तो हैं। जिसे हम अपना आत्मीय समझते थे, मित्र मानते थे, सम्बन्धी कहते थे, यदि किसी दिन उसने हमसे मुँह फेर लिया तो हम दुःखी हो गये । हमने यह नहीं सोचा कि जो अभी प्रेम से भरा है, विनय से भरा है, वह कभी घृणा भी कर सकता है, अविनय भी उससे हो सकती है । विकासशील चेतना वाले व्यक्ति में स्थिरता की आशा करना ही बेकार है । जड़ पदार्थ भी प्रतिपल परिवर्तित होते रहते हैं, तब चेतन के बदलने में अकुलाहट क्यों ? महावीर ने इसी समझ को भेद - विज्ञान कहा है । जन्म मरण को प्रवाह की संज्ञा दी है ।
मुझे याद है अमित, कि तुमने विदेश में डॉक्टरी की शिक्षा ली है। कुछ दिन पहले अखबारों में पढ़ा था कि तुम विश्व के श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक माने जाते हो । शरीर के एकएक भाग को अलग कर सकते हो; किन्तु अमित, इन क्षणों मैं तुम्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ शल्य चिकित्सक मानने को मैं तैयार नहीं हूँ । इसलिए नहीं, कि मेरी शल्य क्रिया करने तुम नहीं आ पाओगे, बल्कि इसलिए कि मेरी शल्यक्रिया किसी और ने कर दी है। वह है, मेरी सन्निकट मौत का क्षण । हाँ अमित,
Jain Education International
तीर्थंकर : जन. फर. ७९/३५
www.jainelibrary.org
For Personal & Private Use Only