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हँसते-हँसते मृत्यु-वरण
"जीवन के अन्तिम क्षणों में जिसकी चेतना में उल्लास न हो, होश न हो, तृप्ति न हो, सहजता न हो, उमने शास्त्र चाहे जितने पढ़े हों; किन्तु स्वाध्याय क्षण-भर भी नहीं किया; और जिसने अपने स्वयं का अध्ययन नहीं किया उसकी दुसरे पदार्थों के सम्बन्ध में बटोरी गयी जानकारी बेकार है।"
डॉ. प्रेम सुमन जैन
प्रिय अमित,
तुम्हारे कितने पत्र इकट्ठा हो गये हैं मेरे पास । पहले सोचा था कि तुम्हें किसी पत्र का जबाब न लिखं; किन्तु तुम्हारे इस अंतिम पत्र ने मुझे विवश कर दिया है, जीवन की इस सन्ध्या में भी तुम्हारी जिज्ञासाओं को समाहित करने के लिए। विचारों के जिस धरातल पर हम दोनों खड़े हैं वहाँ किसी की कोई बात मानी ही जाए, यह आवश्यक नहीं है; किन्तु जीवन के इन अस्सी वसंतों में मन के भीतर जो सँजोता रहा हूँ, उसे तुम्हारे सामने रख देना चाहता हूँ। मुझसे हजारों मील दूर मागर-पार होते हुए भी तुम्हें मैं अपने पलंग के निकट बैटा अनुभव कर रहा हूँ। जन्म-यात्रा का यह मेरा अंतिम पड़ाव हो, इस प्रयत्न में हूँ ; अतः वह सब कहूँगा, जो अब तक अनुभव तो किया था, किन्तु किसी से कह नहीं पाया था। इसमें तुम्हें तुम्हारी जिज्ञासाओं के समाधान मिल जाएँ; तो उन्हें पकड़ लेना और न मिले तो फिर तुम स्वयं खोजना।
तुमने लिखा है कि जहाँ तुम रह रहे हो वहाँ धर्म की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर यह धर्म इस दुनिया में क्यों है ? नये-नये चोले पहिनकर इसने समस्त जगत् को आक्रान्त क्यों कर रखा है ?
यह तुमने बहुत अच्छा किया कि अपनी जिज्ञासा में मानव को ही सम्मिलित किया है। पशु-जगत के अनुभव को हम क्या जाने ? प्रकृति का साम्राज्य तो
और सूक्ष्म है। मैं अन्य लोगों की बात तो नहीं जानता कि वे धर्म क्यों मानते हैं, किन्तु मेरा अपना अनुभव कह रहा है कि धार्मिक होने के मूल में मृत्यु का भय प्रमुख है। मृत्यु की घटना हमारे लिए जितनी भयावह और दुःखदायी होगी, हमारा चित्त उतना ही धर्म की ओर आकृष्ट होगा। उतना ही हम धर्म को आवरण की तरह ओढ़कर मृत्यु से भागते रहेंगे। और जब मृत्यु सिर पर ही आ जाती है तो हम इतने बेहोश हो जाते हैं कि उस क्षण क्या घटा, यह हम कभी अनुभव ही नहीं कर पाते। मानव की मृत्यु के क्षण में यही बेहोशी उसे मृत्यु के चक्र से बाहर नहीं निकलने देती। इसी मृत्यु पर विजय पाने की लालसा ही मानव को धार्मिक बनाये रखती हैं।
तीर्थंकर : जन. फर. ७९/३३
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