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प्रकट हो गयी, कोई रिक्शे या साइकिल से गिर गया, किसी की ठोकर से कोई चीज गिर गयी किसी की टोपी काँटे में उलझ गषी तो हमारे शरीर में गदगुदी होने लगती है और हँसी छूट पड़ती है। ग़लत शब्द-प्रयोग, हकलाना, तुतुलना: या बालकों की क्रीड़ाओं को देखकर हम हँस पड़ते हैं। किसी पर व्यंग्य करने में, किसी को बेवकूफ बनाने में हमें मजा आता है। किसी पर क्रोध करके भी हम भीतर-ही-भीतर हँस पड़ते हैं। इस प्रकार की हँसी को दूसरों पर हँसना कहते हैं। नीतिशास्त्र इसे बुरा कहता है, पाप कहता है।
हम अपने पर कभी नहीं हँसते बल्कि कोई हम पर हँसे तो बुरा लगता है। हम अपने पर इसलिए नहीं हँसते कि हम भूल को स्वीकार करने में कतराते हैं। भूल तो करते हैं, पर उसे स्वीकार करने में अपना अपमान समझते हैं। यह अपमान की प्रतीति अहंकार के बोझ से होती है।
___काव्य-शास्त्र में हास्य एक रस है पर धर्म-शास्त्र में वह एक विकार है। धर्म-शास्त्रों ने हमारी हँसी पर हमारी सहजता पर हमारी उन्मुक्तता पर ताला जड़ दिया है। कोई दो क्षण के लिए मौज में आकर हँस-बोल ले, किसी से प्रेम कर ले, किसी का शरीर छू ले, भर-नयन निरख ले, अपनी प्यास बुझा ले, तो हमारी परम्परा उसे माफ नहीं करती। क्यों नहीं करती? इसलिए कि हम स्वयं इस आनन्द से इस हँसी से वंचित हैं।
___ कौआ अकेला नहीं खाता, मोर धन-गर्जन सुनकर झूमने लगता है, कुत्ते भी एक-दूसरे का मुंह चाटते रहते हैं पर आदमी अजीब है। उसने अपनी ज़िन्दगी को चारों तरफ से इस कदर जकड़ रखा है कि रात-दिन माथा पकड़कर वह रोता रहता है। हम जन्म-जन्म के उदास हो गये हैं और उदासी को, उदासीनता को हमने जीवन की ऊँची माधना समझ लिया है ! अब हँसी हमारे होठों पर और आँखों पर कैसे आ सकती है ?
__ मैं स्वयं हँसी का प्यासा हूँ। हँसी मिले मुस्कान मिले तो अबतक के पाले हुए भगवान् को भी तजने में हर्ज नहीं। जो भूल करने से डरता है वह हंस नहीं सकता। जो भूल करता है और उसे स्वीकार करता है, वही जीना जानता
- फूल हँसता है क्योंकि उसे चिंता नहीं कि कोई उसे तोड़कर जेब में टाँकेगा, या देवता के चरणों में अर्पित करेगा, या किसी प्रेमिका के जुड़े में बाँधेगा, या शव पर चढ़ायेगा, या वह स्वयं ही गिर जाएगा। यह उन्मुक्तता ही हँसी का मूल है और यही ज़िन्दगी है, मुक्ति है। कोई रत्ती-भर हँसी मुझे भी दे दे, चाहे जीवन ले ले।
तीर्थकर : जन. फर. ७९/३२
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