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________________ इसका जन्म होता है, न मरण। यह कारणान्तर से उत्पन्न नहीं हुई न ही कुछ उत्पन्न होता है इससे । यह जन्महीन है, नित्य है; शाश्वत है पुराण है। शरीर का नाश हो जाने पर भी, इसका नाश कभी नहीं होता । मृत्यु होने पर आत्मा का विनाश हो जाता है यही शंका थी वह मिट गयी। असलियत में मृत्यु की शंका क्या है ? यही तो कि मैं नहीं रहूँगा । 'आई एक्झिस्ट' इसी अभाव की शंका । यही मनुष्य को खलता है, इसी का रोना है, यही दुःख है। यदि मनुष्य इस तथ्य को जान जाए कि मैं रहँगा और उसी प्रकार रहँगा जिस प्रकार हूँ तो फिर कहाँ है मृत्यु क भय ? भय क्यों ? गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं-'वासांसि जीर्णानि यथा विहाय' पुरातन जीर्ण वस्त्र का परित्याग क्या दुःखद होता है ? नवीन वस्त्र धारण करने में कोई दुःख होता है ? तो उस जीर्ण शरीर का परित्याग एवं नवीन कलेवर धारण करने में दुःख क्यों ? मृत्यु मिट जाना नहीं है, वह है नवजीवन का सिंहद्वार-कविवर रवीन्द्र कहते हैं-जखन पड़वे ना मोर पाए र चिन्ह एई बारे' जब इस पथ पर मेरा पैर नहीं पड़ेगा अर्थात जब मैं जीवित नहीं रहँगा तब क्या मैं नहीं रहँगा ? नहीं, अवश्य रहूँगा । वे कहते हैं तखन के बले गो सेई प्रभात नेई आमि सकल खेलाय करवो खेला एइ - आमि नतून नाम डाकवे मोरे बाँधवे नतून बाहुर डोरे आसव जाव चिर दिनेर सेई- आमि । (कौन कहता है उस प्रभात-बेला में मैं नहीं रहँगा ? मैं सभी खेलों में खेलंगा । मुझे नये नामों से पुकारोगे, नवीन बाहओं में बाँधोगे । शाश्वत 'मैं' आता-जाता ही रहँगा । निरधिकाल तक · · · निरन्तर · · ·निरन्तर ।) _ 'मैं अजर हूँ, अमर हूँ' यही है वह अभयमन्त्र, जिसके बल पर मनुष्य हँसते-हँसते मर सकता है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पतंग हँसते-हँसते मृत्यु का आलिंगन करता है; क्योंकि मृत्य है ही नहीं। वह तो है महज काया-कल्प । मानव मृत्युंजय हैं, मृत्यु के अधीन नहीं। वह चलता है मृत्य को पैरों-तले दबाता हुआ, रौंदता हुआ । · · पर इतना अभीत वह कब बन सकता है ? तब जबकि वह नचिकेता की भाँति आत्मतत्त्वों को जान ते के लिए यम के घर भी पहुँच जाए, मृत्यु का वरण कर ले । यह कथा नहीं एक रूपक है। हर आत्मार्थी को नचिकेता की भाँति यम के घर जाना ही पड़ता है। अमृत प्राप्त करने के लिए मृत्यु का वरण करना ही होता है। - किन्तु मृत्यु किसकी ? संस्कारों की। संस्कारों की मुत्यु होते ही जीवन रूपान्तरित हो जाता है महाजीवन में। तभी तो वह मृत्यु को अपना कर हँसते-हँसते मर सकता है; क्योंकि उसे ज्ञात है-आत्मा अजर है, अमर है, अक्षय है। तीर्थंकर : जन. फर. ७९/३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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