SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणेश ललबानी हँसते-हँसते मरना यदि मनुष्य इस तथ्य को जान पाये कि मैं रहँगा उसी प्रकार रहँगा जिस प्रकार हूँ तो फिर कहाँ है मृत्यु का भय ? मृत्यु मिट जाना नहीं है, वह है नवजीवन का सिंहद्वार। रवीन्द्र कहते हैं--'जखन पड़वे ना मोर पाएर चिन्ह एई बारे'-जब इस पथ पर मेरा पैर नहीं पड़ेगा, अर्थात् जब मैं जीवित नहीं रहँगा तब क्या मैं नहीं रहँगा! अवश्य रहूँगा। 000 ___ लगता है हँसते-हँसते जीने से कहीं सहज है हँसते-हँसते मरना । जब देश पर आक्रमण होता था राजपूतगण हँसते-हँसते देश की बलिवेदी पर मर मिटते थे। राजपूत महिलाएँ इज्जत आबरू के लिए हँसते-हँसते अग्नि में प्रवेश कर जाती थीं। सहस्र-सहस्र प्रेमी-प्रेमिकाओं ने प्रेम-यज्ञ की ज्वाला में हँसते-हँसते स्व-प्राणों की आहुति दे डाली थी। रवीन्द्रनाथ की 'श्यामा' नत्य-नाटिका में उत्तीय अपनी प्रेमिका के लिए हँसते-हँसते शली चढ़ गया था। मुझे आज वे दिन याद आ रहे हैं जबकि बंगाल के नवयुवकों ने हँसते-हँसते गोलियों का सामना किया था; और वे हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते पर चढ़ गये थे। खुदीराम बोस के लिए तो कहते ही हैं हाँसि हॉसि परव फांसी, देखबे भारतवासी । ___ अतः मैं कह रहा था, लगता है हँसते-हँसते जीने से कहीं सहज है हँसतेहँसते मरना। हँसते-हँसते जीना जहाँ एक कला है, एक साधना है, वहाँ हँसते-हँसते मरना एक आवेग, एक उल्लास है, जिससे प्रेरित होकर हम क्षण-भर में ही हँसतेहँसते मर सकते हैं। यह हँसते हुए मरना हुआ देश के लिए, नाम के लिए, इज्जत के लिए, प्रेम के लिए। · · · पर एक हँसते-हँसते मरना और भी है और वह है आत्मा के लिए। वह आवेग नहीं, उल्लास नहीं वह भी है एक साधना, एक सतत प्रयास । कठोपनिषद् की कथा है कि वाजश्रवा के पुत्र ने विश्वजीत यज्ञ का अनुष्ठान किया और स्वर्ग-कामना से अपना सर्वस्व दान कर दिया। उनके एक पुत्र था नचिकेता। वह था तो बहुत छोटा पर हृदय उसका था श्रद्धा से आपूरित । जब उसने देखा कि पिताजी ने सर्वस्व दान कर दिया; किन्तु उसे दान नहीं किया (सर्वस्व में वह भी तो था) तब वह पूछने लगा--'आपने मुझे किसे दान किया है ?' एक बार पूछा; दूसरी बार पूछा, किन्तु पिता निरुत्तर रहे। पर जब बार-बार वह वही तीर्थकर : जन.फर. ७९/२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only .. www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy