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________________ यदि कोई माने तो। यह न समझिये कि मैं मस्का नाम की वस्तु लगा रहा हूँ आपको । और आपकी बात ऊपर कर रहा हूँ । दरअसल वह तो हमने भगवान् को भी नहीं लगाया था, जब वे 'जियो और जीने दो' का पूत्र निःशुल्क प्रदान कर रहे थे। एक बात कह दूं, मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि वे उस समय 'जियो और जीने दो-विशेषांक' निकाल पाते तो यह भी सूत्र की तरह निःशुल्क ही वितरित करते । महावीर आप-जैसे नहीं थे कि दो रुपये मूल्य रखते विशेषांक का । यह अलग बात है कि महावीर जैन समाज की करनी-कथनी से परिचित थे, इसीलिए वे सूत्र या पुस्तक निःशुल्क बाँटने की बात सोचते थे। उन्हें मालूम था कि 'जैन' सम्प्रदाय का साफ-सुथरा दीखने वाला आदमी, इतना दौलत-प्रिय और संदर्भो से कटा हुआ; लेटा हुआ; आदमी है कि वह निःशुल्क बँट रहे सूत्र या साहित्य को भी समय पर प्राप्त कर लेने का कष्ट नहीं करेगा और गादी से टिके-टिके कह देगा-महावीर जाओ, कभी फिर बाँटने आना अपना सूत्र-साहित्य, अभी तो मैं नोट गिन रहा हूँ। लगता है कि महावीर का 'जियो और जीने दो', या आपका 'हँसते-हंसते जियो' गादी और बादी वाले समाज के सामने कोई मायने नहीं रखता। हाँ, एक बात हो सकती है, यदि आप अगला अंक 'नोट गिनते-गिनते जियो' नाम से निकालें तो अवश्य देश की सम्पूर्ण गादियों में होड़ लग जाएगी और बादी वाले शरीरों में हलचल मच जाएगीअंक सबसे पहले पाने के लिए। तब लाखों अंक बिक सकते हैं। __नोट गिनते-गिनते जीना कौन नहीं चाहता, जिसे अवसर उपलब्ध है, वह भी और जिसे अवसर चाहिये, वह भी ; अतः आप धर्म की बात का कितना ही समाजीकरण करें, सरलीकरण करें, वह हमें, हमारे समाज को तभी पसंद आयेगी जब उसके गर्भ में कहीं 'नोटों' की चर्चा धड़कती हो; चाँदी की खनक हो, सोने की दमक हो। ___ मेरी बात को यदि बच्चों की बात कहकर न टालें तो आप स्वतः अंदाज लगा सकेंगे कि जो श्रावक प्रतिदिन एक घंटा मूर्ति के सामने बैठता है वही आठ घंटे तिजोरी के समक्ष भी जमा रहता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि हमारे प्रिय श्रावक का जीवन और जीवन का 'हँसते-हँसते' कहाँ है, मंदिर में या तिजोरी में; विशेषांक के संकेत समझने में या नगदी गिनने में ? हँसते-हंसते जीने का उपाय कोई मुझसे पूछे तो वह मेरे दृष्टि-क्षेत्र में बहुत सीधासा है-'पसीना बहाकर खाये, और दिन भर मस्कराये'। फैक्टरी का मालिक एक पूरी फैक्टरी चलाता हुआ भी हँसते जीवन' से जीवनभर दूर रहा आता है। दुकान का स्वामी दिन-भर बिक्री करते रहने के बाद भी 'हँसते जीवन' को नहीं छू पाता। दुकान के बाद नौकरी और नौकरी के बाद मजदूरी में भी 'हँसते जीवन' का उतना गाढ़ा स्पर्श देखने नहीं मिल रहा है जितना चाहिये। यह स्पर्श तीर्थकर : जन. फर. ७९/२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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