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निष्णात कर दिया है, उनमें इसकी आदत डाल दी है, तो वह सारी चिन्ताओं, सारे भयों और सारी शंकाओं से मुक्त होता है। जो आत्मा और शरीर के भेद अर्थात् स्व-पर भेद-विज्ञान का सत्य श्रद्धानी है, वह हँसते-हँसते जीता है। जीवन में भी उसकी मुक्ति है और मृत्यु भी उसके लिए निर्वाण में बदल जाती है; अर्थात् वह हँसते-हँसते मरता है और उसके अभाव में लोक रोता है। कर्त्तव्यनिष्ठ की दशा कबीर की इस परिकल्पना-जैसी होती है कि
"कबिरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर ।
पीछे-पीछे हरि फिर कहत कबीर कबीर ।।" अथवा कवि विनोदीलाल के शब्दों में कि
"तो जियरा तरसे सुन राजुल, जो तनको अपनो कर जाने । पुद्गल भिन्न है, भिन्न सबै तन, छाँड़ि मनोरथ आन समान । बूडेंगो सोई कलधार मैं, जड़ चेतन को जो एक प्रमाने । हंस पिवै पय भिन्न करै जल, सो परमातम आतम जानै॥"
-बारहमासा नैमी-राजुल-११. प्रत्येक विवेकशील और स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति को हँसते-हँसते जीने बोर हँसते-हँसते मरने की कला को जानना, समझना और चरित्र में उतारना चाहिये। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र या कायिक, वाचिक और मानसिक तपोसाधना के द्वारा आत्मकल्याण की दिशा में जीवन को प्रशान्त, निर्भीक और स्वतंत्र बनाना मानव-जीवन का परम कर्तव्य है।
(हंसते-हंसते जियें करें : पृष्ठ २० का शेष) __ अभी दो-तीन ही दिन इस कशमकश में गजरे थे कि चाय पीते मेरी आँखें नम देख कर पत्नी को शक-सन्देह हुआ। छोटा बच्चा स्कल जाने की तैयारी में था। मुझे नहीं मालूम वह कब मेरे एक मित्र प्रोफेसर के घर गया और उन्हें अपने साथ ले आया। वह हाथ में पुस्तकें लिये--कपड़े लगाये आये। 'क्या कॉलेज जा रहे हो?'--मैंने उन्हें देख कर पूछा। 'हाँ'--कह कर वह मेरे पास बैठ गये, मैं लेटा था। अब पत्नी रो रही थीं। कुछ देर वह मौन बैठे रहे। 'भाभी, क्यों क्या बात है' उन्होंने पत्नी से पूछा।
कई दिन हुए घर से तार आया है (इस बार आँखों में फिर आँसू भर बाये-उत्तर लिखते हुए धुंधले दिखायी दे रहे हैं--आँसू पोंछ कर) ये कुछ बताते नहीं, क्या बात है'--पत्नी ने अश्रुपात करते उत्तर दिया। मैं अब भी लेटा था। 'क्यों डॉक्टर साहब, क्या बात है, कहाँ है वह तार, लाइये मुझे दीजिये'--उन्होंने मुझ से पूछा। मैंने मुस्कराकर कहा--'सब ठीक है, कोई ऐसी बात नहीं'। एक बार फिर उनकी तरफ देख कर मुस्कराया और बोला-'आप जाइये, आपका फर्स्ट पीरियड होता है, देर हो रही है दस मिनट बाकी हैं।
___इस बार उन्होंने आहिस्ता से--हमदर्दी से पूछा और उत्तर में मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे। 'अजहर एक्सपायर्ड'--उनके उत्तर में मैंने एक कागज पर लिख दिया।
तीर्थकर : जन. फर. ७९/२४
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