SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुद्ध-सात्त्विक जीवन बनाना चाहिये । प्रातःकाल जल्दी उठकर नित्य कृत्य से झटपट निवृत्त होकर अपना जो कर्म या व्यवसाय हो उसमें लग जाना चाहिये। विद्यार्थी को पढ़ने में, कृषक को कृषिकर्म में, व्यापारी को अपनी दुकान आदि में पूर्ण मनोयोग से जुट जाना चाहिये। युवावस्था में कर्तव्य-भार कुछ और बढ़ जाता है। विवाह कर गृहस्थाश्रम अर्थात् योग्य गृहस्थ की भूमिका में प्रवेश करने का यह अवसर होता है। इस अवस्था में अपने 'स्व' का विस्तार होता है। पत्नी की सुख-सुविधा और आकांक्षा का भी ध्यान रखना होता है। एक के बदले दो का दायित्व होता है और दोनों के योग से सन्तति-परम्परा भी चलती है और संतान के प्रति भी कर्त्तव्यशील होना होता है। इस प्रकार कर्तव्यों की तालिका बढ़ती जाती है। रोटी, कपड़े, आवास आदि की समस्या के समाधानार्थ योग्य अर्थार्जन करने की साधना के अतिरिक्त का समय परिवार के साथ बिताने से पारिवारिक जीवन सुखी बनता है; पत्नी को गृहकार्यों में कुछ सहारा मिलता है और बच्चों को उलझाये रखने से उनमें आत्मीयता आती है और वे भी सुसंस्कृत बनते हैं। अवकाश का समय कुछ लोग क्लबों, सिनेमा, गोष्ठियों आदि में बिताते हैं। यह पारिवारिक, आर्थिक और नैतिक दृष्टि से सही नहीं है। घर में बैठना किसी को न रुचता हो तो वह बाहर कहीं भी जा सकता है; पर तभी, जब घर में काम न हो; और पत्नी तथा बच्चों को भी साथ ले सकता है। घर में वृद्ध माता-पिता हों तो उनका भी ध्यान रखना आवश्यक होता है। ____ आजीविका का साधन भी निर्दोष, वैध, नैतिक और सम्मानपूर्ण होना चाहिये, जिसमें स्वयं, अपने माता-पिता, स्त्री, पुत्र आदि को न तो कष्ट उठाना पड़े न लोक में लज्जित होना पड़े और न उसके कारण राजदरबार या राजपुरुषों आदि के पीछे दौड़ना पड़े। अपने आश्रितों को दूसरे के आश्रय में कभी न जाना पड़े, इसका सतत ध्यान रखना चाहिये। पराये घरों में न तो अधिक देर ठहरना चाहिये और न दूसरों को अपने यहाँ अधिक बैठा कर रखना चाहिये। इससे होने वाले चारित्रिक प्रदूषण की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। मित्र, नागरिक आदि के भी जो कर्तव्य हैं उन्हें भी जागरूकता पूर्वक करते रहना चाहिये। ___जो अपने कर्तव्यों का सही शैली में परिपालन नहीं करता, वह पापी है, और मृत्यु से भय उस पापी को ही होता है। मरने के नाम से वह काँप उठता है, पर कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य मृत्यु को महोत्सव मानता है। क्या अन्तर पड़ता है, वह आज है और कल नहीं है ? वह जब नींद में होता है, तो कुछ घंटों के लिए या कम-से-कम उतने समय के लिए, संसार के लिए नहीं होता है। क्या अन्तर पड़ता है यह कुछ घंटों का न रहना शाश्वत अनुपस्थिति में बदल जाए तो? उसने यदि अपने कर्तव्यों का सही पालन किया है और अपने बेटे-बेटियों को भी इसमें तीर्थंकर : जन. फर. ७९/२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy