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________________ हममें से बहुतेरे कह सकते हैं, और ठीक ही कह सकते हैं, कि हम कबीर नहीं हैं, सुकरात भी नहीं और वर्णीद्वय भी नहीं हैं। यह ठीक है, पर उतना ही ठीक यह भी है कि हम यथालिंग ( स्त्री या पुरुष ) किशोर, युवा, मित्र, पति, पिता और नागरिक भी हैं और उनके अतिरिक्त आजीविका के लिए हमने कोई व्यवसाय, पेशा, नौकरी आदि भी अपना रखी है। ये हमारी भूमिकाएँ हैं । इन भूमिकाओं का सही निर्वाह हमारे लिए गौरव का कारण होगा; यही हमारी पूजा होगी, हमारी नमाज होगी, हमारी इबारत, प्रार्थना या साधना होगी । इस साधना में सफल होकर ही हम जीवन की चादर को हँसते-हँसते ओढ़ सकते हैं और हँसतेही - हँसते छोड़ सकते हैं। अपने कर्त्तव्यों की याद कर लें और ईमानदारी से उनके पालन करने का व्रत लें, फिर देखें कि जीवन कितना संगीतमय और उपयोगी सिद्ध होता है । कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो दूसरों को हँसाते हैं, पर स्वयं रोते हैं । हास्यरस एवं साहित्य के अधिकांश रचयिताओं के जीवन में इस वैषम्य के दर्शन होते हैं । अभी कुछ ही समय पूर्व हास्यरसावतार कहाने वाले जी. पी. श्रीवास्तव रोते-रोते संसार से विदा हो गये। ऐसे लोगों का स्वभाव तो विनोदी होता है, पर परिस्थितियाँ रावण अर्थात् रुलाने वाली होती हैं । ऐसे लोगों के विनोद से हँसने वाले लोग उनके दुखते हृदय को नहीं देख पाते । हमारे परिचितों में दो भाई-भाई थे । दोनों इतने जिन्दादिल थे कि रोते को भी हँसा देते थे, परन्तु स्वयं में वे असफलता और विफलता की लू अथवा पाले के मारे हुए थे । उनमें कुछ ऐसा आकर्षण था कि उनके सम्पर्क में आने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। बड़े धनीमानी भी उनसे प्रभावित थे, किन्तु 'सफलता' शब्द सम्भवतः दोनों के भाग्य - कोश में था ही नहीं । ऐसे लोगों को किस श्रेणी में परिभाषित करें —— हँसते-हँसतों में या रोते-रोतों में - समझ में नहीं आता । बाल्यकाल तक तो जिम्मेदारी अभिभावक की होती है, पर किशोर होते ही वह स्वयं पर आ जाती है । मार्गदर्शक की आवश्यकता होती भी है तो निमित्त मात्र; उचित विवेक होने पर नहीं भी होती है। मार्गदर्शक हो अथवा न हो, दोनों दशा में चलने की जिम्मेदारी अपनी है। गीता कहती है, 'उद्धरेदात्मनात्मानं ' - अपना उद्धार स्वयं करो; अस्तु । किशोरावस्था से ही मनुष्य को अपने समय, शक्ति, परिस्थिति अथवा विवेक, ज्ञान और कर्म ( हार्ट, हेड, हैंड) के सदुपयोग करने का अभ्यास करना चाहिये । आलस्य, तंद्रा, व्यर्थ की गप्पाष्टक, हास-परिहास, ताश, जुआ, धूम्रपान, चाय-कॉफी आदि हानिकारक नाना प्रकार के पेय, मद्य, मांस भक्षण, अनैतिक आचार-विचार, अनावश्यक शृंगार, चमक-दमक आदि से सतत बचते रहना चाहिये । सादा और पौष्टिक आहार करना, व्यायाम करना, चरित्र-निर्माण करने वाला साहित्य पढ़ना और तीर्थंकर : जन. फर. ७९/२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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