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________________ तू हाँसे जग रोये 00 अपनी साधना में सफल होकर ही हम जीवन की चादर हँसते-हंसते ओढ़ सकते हैं और हँसते-हँसते ही उसे छोड़ सकते हैं। यदि हम अपने कर्तव्यों की याद कर लें, और ईमानदारी से उनके पालन का व्रत ले लें, तो फिर देखें कि जीवन जीवन कितना संगीतमय और उपयोगी सिद्ध होता है। - कन्हैयालाल सरावगी मनुष्य जब जन्मता है तब स्वयं तो रोता है और लोग हँसते हैं, और जब वह मरता है तो अपने-पराये तो रोते ही हैं, मरने वालों में भी कोई-कोई बेचैन भी होता है और रोता बिलखता भी है। मृत्यु एक अनिवार्यता है, यह सबके लिए आने वाली है। जीवन जीने मात्र के लिए नहीं होता, वरन् उसके साथ एक भूमिका होती है। जीते सभी हैं, पर जीने की जो कला है, उससे कम ही लोग परिचित होते हैं। इसलिए उनका जीवन एक नीरस जीवन मात्र रहता है, उसमें अपेक्षित माधुर्य नहीं आ पाता। वह मनुष्य हो सकता है, पर मानवता से दूर, बहुत दूर । कलाविहीन जीवन जीने वाले ही रोते-चिल्लाते हैं और जीवन को भार-रूप मानते और ढोते हैं। मरते समय उन्हें मृत्यु से भी भय होता है। जैन भाषा में उनकी मृत्यु को बाल या अपण्डित मरण कहते हैं। जीने की कला जानने वाले भी इस धरती पर अनेक हो गये हैं। उन्हीं में से एक थे कबीर, जिन्हें अपने जीवन की कला में संतोष था और मृत्यु में जीवन की चादर समेटने जैसी सहजता भी थी। तभी वे डंके की चोट कह सके थे कि "या चादर सुर-नर-मनि ओढी, ओढ़के मैली कीनी। दास कबीर जतन करि ओढ़ी ज्यों-की-त्यों धर दीनी'। यही बात हम सुकरात, गणेश वर्णी, सहजानन्द वर्णी आदि के लिए भी कह सकते हैं। इन सभी ने अपनी-अपनी चादरें बेदाग़ और बेधब्बे के रख दीं। उस कला को ढूढ़ना है जिसके लिए कबीर कहते हैं कि 'कुछ ऐसी करनी कर चल कि (मरते समय) तू हाँसे जग रोये। ऊपर कह आये हैं कि मनुष्य को जीवन के साथ एक भूमिका भी मिली होती है। उस कला का गुरमंत्र नुस्खा या प्रक्रिया इसी भूमिका में है। अपनी भूमिका की जो सफल अदायगी करता है; शान्ति, संतोष और प्रसन्नता उसी के पल्ले पड़ती है। कबीर एक जुलाहा थे, कपड़ा बुनते थे। वे जो चरखा और करघा (लूम) चलाते थे उससे संसारियों की नग्नता ढंकने का साधन बनता था और साथ ही भीतर ध्यान और सुरत का चरखा और करघा भी चलाते थे, जो कर्मास्रवों से उनकी रक्षा करने वाला संवररूपी अम्बर बुनता था। तीर्थकर : जन. फर. ७९/२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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