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उनकी यथार्थ रूप में दी गयी तसल्ली से सँभला। वह मुझे मेरे द्वार तक छोड़ने आये। बगैर खाना खाये--तबीयत ठीक न होने का बहाना कर लेट गया--तमाम रात जागते बीती--कभी सजल नेत्र, तो कभी शुष्क। हृदय का तूफान कम नहीं हुआ। दूसरे दिन नाममात्र का नाश्ता कर कॉलेज गया-- दो क्लासें पूर्ववत पढ़ायीं। अंग्रेजी-विभाग में गया-- एक उर्द के प्राध्यापक मित्र ने मेरी ओर देखकर कहा--'क्यों, तबीयत तो ठीक है'। 'हाँ, कुछ ऐसा
ही है' मैंने कहा। 'वो बच्चा ठीक है आपका जो बीमार था'--उसने फिर पूछा। 'वो ही ठीक नहीं'--मैंने बताया। 'क्यों क्या हुआ उसे ?'--वह फिर बोला।
'अब तो बस मामला ख़त्म समझो'-इतना ही कह पाया था कि एक दूसरे मित्र ने मुझे उठाया और कमरे से बाहर ले जाकर पूछा--'क्या बात है साफ़-साफ़ बताओ, घर पर खैरियत है न?' मैंने इधर-उधर की बातें की, अज़हर के ८-१० रोज़ गाँव से आये हए ख़त का तजकरा किया कि वह परेशान है और उसने लिखा है-'मुझे सब परेशान करते हैं, क्यों न मैं उसी के पास चला जाऊँ जिसने मुझे पैदा किया है।'
कोई एक्सीडेंट तो नहीं हुआ ?' उनका प्रश्न था।
'नहीं, अभी तक ऐसा मालूम नहीं हआ'--मैंने बताया। उस दिन मैंने टी. डी. सी. फा. की क्लास नहीं ली थी घर उस दिन कुछ विलम्ब से पहुँचा, चाय पी और कोई किताब लेकर बैठ गया। रात में कुछ यों ही पन्ने पलटता रहा। पत्नी ने तार के बारे में फिर पूछा था, अजहर की खैरियत पूछी थी मैंने कह दिया था--'सब ठीक है।
__इसी मानसिक तनाव में मैंने इण्टरव्य भी एक पोस्ट के लिए दिया। उससे पूर्व हिन्दी-विभागाध्यक्ष (कश्मीर वि. वि.) से भी मिलने पहुँचा, उन्होंने चपरासी भेज कर मुझे बुलाया था। अपने को संभालता हुआ साक्षात्कार के लिए गया था। कई-एक मित्र थे वहाँ-थोड़ी औपचारिकता के साथ बातें कीं। जिस स्थिति में गया था, उसी स्थिति में तनाव की--शोक की--अन्दरूनी स्थिति में घर लौटा । संभलते हुए साक्षात्कार में प्रश्नों के उत्तर दिये। बाद में एक सज्जन के द्वारा मालूम हुआ कि एक एक्सपर्ट ने कहा था--'निज़ाम साहब कुछ डिस्टर्ड से मालूम होते थे'।
_(शेष पृष्ठ २४ पर)
तीर्थंकर : जन. फर. ७९/२०
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