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________________ बताते हैं, दूसरी ओर उस टाट पर रेशम के पैबंद लगाना भी नहीं भूलते; फलतः दो पृथक्-पृथक् सत्ताएँ अपने पूर्ण पृथक् अस्तित्व के साथ दृष्टिगोचर होती हैं। रेशम को हम ललचायी नजरों से देखते हैं, उसकी दिव्यता पर मोहित होते हैं; किन्तु टाट के साथ उसकी असंगत योजना को हमेशा सशंक नज़रों से देखते हैं। आदर्शों के विशाल अलाव हमने जला लिये हैं ओंर दूर बैठकर हाथ सेंक रहे हैं; जैसे ही आँच खत्म होती है, हम पुनः ठंड में सिकुड़ने लगते हैं। जीवन के प्रति जब भी एक सहज-स्वाभाविक दृष्टि को छोड़कर हम ससीम या निस्सीम होना चाहते हैं, हँसना भूल जाते हैं। जी हाँ, ससीम और निस्सीम ; क्योंकि जीवन को हम या तो ‘पंक' मानते हैं या फिर 'पंकज'; जबकि पंक और पंकज के इस तालाब से दूर, जीवन कुछ गीली-सूखी वह भूमि है जिस पर हमें मार्ग के कंकड़ और फिसलन-काई भरी सभी पर से नंगे पाँव गजरना होता है। जीवन जीने के लिए है, चिपकने के लिए नहीं, पर अक्सर हम जीवन से चिपकना चाहते हैं। भूल जाते हैं कि हम मेहमान हैं, मेजमान नहीं हैं। पैर हमारे रुके नहीं हैं, यात्रायित हैं। वक्त हमें मिला जरूर है पर निर्धारित है, संपूर्ण नहीं। सोचकर देखें, दिन में एक बार जरूर ऐसा सोचें, सुख और दुःख अब उतने बड़े नहीं लगेंगे जितने पहले लगते थे, आघात-प्रतिघात उतने प्रताड़ित नहीं करेगे, जितने पहले करते थे। एक तटस्थ और सम्यक् दृष्टि का प्रवेश खुद-ब-खुद प्रारम्भ होगा। लोगों को अक्सर कहते सुना है कि जीवन को पूर्णता और समग्रता के साथ जीना है तो जीवन के प्रति मोह छोड़ दो। 'मोह छोड़ना' तो बहुत बाद की प्रक्रिया है। मोह छूटा नहीं कि संत बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई; पर क्या सारी दुनिया एका-एक संत बन सकती है ? एक सामान्य स्तर पर समग्र एवं भरपूर जीवन जीने के लिए, जीवन के प्रति मोह तो नहीं पर हाँ, सम्मोह जरूर छोड़ना होगा, अपनी अतिरिक्त सजगता छोड़नी होगी। कृत्रिमताओं में खुद को इतना न लपेट लिया जाए कि हम स्वयं को जकड़ा महसूस करने लगें और एक स्वस्थ वातावरण में साँस लेना मुश्किल हो जाए। ___ व्यवहार एवं व्यावहारिक जिंदगी से पलायन भी जीवन को बहुत किरकिरा बनाता है। आदर्श, सिद्धान्त, एवं बौद्धिकता हमारे आत्मविकास के साधन हैं; अतः एक धीमी-भीनी फुहार के समान ही इनका आनन्द लेना चाहिये। हममें इनका वेग इतना भीषण न हो पाये कि सारी हरियाली, सारी सरसता ही चुक जाए और जीवन एक ठूठ की भाँति दरक उठे। सर्चलाइट तेजी से निरन्तर घूम रही है और कई ध्वनियाँ एक साथ अतल में प्रतिध्वनित हैं-'जीवन जलकुण्ड नहीं जलप्रपात है जो हास, उल्लास, गति, समन्वय एवं समर्पण की भावनाओं को समेटे हुए है। चंद लमहे जो तुम्हारे निमित्त बने हुए हैं, उन्हें इस सहजता से जियो कि वे मिसाल बन जाएँ और तुम मशाल बनकर युग-युगों तक अपने ज्योतिकणों को अक्षुण्ण रख सको। तीर्थंकर : जन. फर.७९/१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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