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हम हँसना भूल जाते हैं
जीवन के प्रति जब भी हम एक सहज-स्वाभाविक दृष्टि को संकुचित या विस्तृत करना चाहते हैं, हँसना हमारे हाथ से फिसल जाता है । कृत्रिमताओं में खुद को इतना न जकड़ दिया जाए कि हम स्वयं जकड़ जाएँ और एक स्वस्थ वातावरण में सांस लेना मुश्किल हो जाए ।
कु. अर्चना जैन
“सच्ची-ई-ई-ई-! क्या जिया जा सकता है, हँसते-हँसते ? धत् ! जीवन और हँसना ? व्हॉट ए स्ट्रेंज कॉम्बिनेशन ! " ( क्या विचित्र मेल है ) लगा जैसे दूर कोई हँस रहा है-फिक्-फिक्; भौंडी - सी हँसी एकदम मखौल उड़ाने के अंदाज में । मन दप्
बुझ गया । सोचने लगी कैसा होगा वह जीवन जो प्रचण्ड ग्रीष्म, कड़कड़ाती ठंड, और डूबती-उफनाती बाढ़ों में भी धीर, प्रशान्त और ऊर्ध्वमुखी होगा, थपेड़े निगलकर भी स्मिति उगलेगा । सर्चलाइट घूमी और अचेतन के जाने किन दरों में पड़ा यह वाकया अचानक उछलकर सामने खड़ा हो गया ।
दो मित्र थे। लोगों का मत था कि एक बड़ा अच्छा है और दूसरा बड़ा बुरा । आर्थिक स्तर पर दोनों समान थे । पहला समाज-सुधारक था। ऊँची-ऊँची बातें कहता था, उसका दायरा विस्तृत था और समाज में उसको भारी प्रतिष्ठा प्राप्त थी । दूसरा अपने में खुश रहने वाला मस्तमौला प्राणी था । आत्मप्रतिष्ठा से उसे कोई सरोकार न था । वह ऊँची-ऊँची बातों से परहेज करता था, लोग उससे कतराते थे ।
समय दौड़ता रहा । अचानक दोनों की ही परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुई । पहला लड़खड़ाया, दूसरा डटा रहा। जीवन में चलने के लिए एक ने बाहर से जितनी भी बैसाखियाँ लगायी थीं हर झटके के साथ वे गिरती गयीं और अन्त में वह भूमि पर गिरकर तड़पने लगा । सारी सामाजिकता, सुधारवाद का भूत उतर चुका था, अब वह मुंह ढाँपे कमरे में पड़ा रहता । बैसाखियाँ दूसरे ने भी लगायी थीं, पर बाहर नहीं, भीतर, अतः चाल में कोई फर्क नहीं आया । चेहरे की मुस्कान ज्यों-की-त्यों बनी रही ।
सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो पता चलेगा कि एक वस्तुतः अच्छा था और एक दीखता था । बड़ा फर्क है इस 'होने' और 'दीखने' में जीवन दोनों के सामने था और परिस्थितियाँ भी, किन्तु जिसके पास सम्यक् दृष्टि व आत्मचेतना का अभाव था वह
चूक गया ।
कभी-कभी लगता है हमें शायद रोग हो गया है बड़ी-बड़ी बातें कहने का, बड़ी-बड़ी बातें सुनने का, और बड़ी-बड़ी बातें लिखने का । तब महसूस होता है कि हमारे चारों ओर के उपादान अत्यन्त विराट हैं और इन विराट तत्त्वों के मध्य यदि कोई लघु है तो - 'हम' । किन्तु हम अपने लघुत्व को भी सहज पचा नहीं पाते, उसे विराट बताने की कोशिशों में जुटे रहते हैं । एक ओर तो जीवन को टाट
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