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(संपादकीय : पृष्ठ ४ का शेष) . . या वह जिस माध्यम को अबतक काम में ले रहा था, उसे जर्जर पाता है, छूटा. हुआ पाता है। ऐसे में एक सवाल सामने आता हैक्या हम किसी ऐसे वस्त्र को, जो अब नया नहीं रहा है, जर्जरित हो गया है, बदलने में एक संतोष का अनुभव नहीं करते? एक तो यह कि आप उस वस्त्र को मैला होने ही न दें, या कम मैला होने दें, इससे आप उसकी कुछ उम्र बढ़ा लेंगे, किन्तु यह नितान्त असंभव ही होगा कि आप किसी उपादान को उसमें संभावित आकार में जाने से रोक सकें; वृक्ष तो होंगे ही, फल भी होंगे, बीज नये वृक्षों को जनम देंगे ही; वही-वैसी स्थिति हमारी है, हम आये हैं, जाएँगे ही; इसलिए, फिर आप ही बतायें व्यर्थ ही इतने चिन्तित आप क्यों हैं ? ... हमारी विनम्र समझ में उन्मक्त और असली हँसी के लिए मोह के पंजे से छुटकारा ज़रूरी है। जो अनासक्त है, वही हँस सकता है, हँसने का अधिकारी है; जो जीवनोत्सर्गी है, हँसने का अधिकार उसे ही है; जो यह जानता है कि उसका कुछ भी नहीं है, और यह कि सबकुछ उसी का है. वही हँस सकता है। शहीद हँस सकता है, बलिपंथी हँस सकता है, लोकसेवी हँस सकता है, संत मुस्करा सकता है, महावीर हँस सकता है, गौतम हँस सकता है, राम हँस सकता है, कृष्ण हँस सकता है - क्योंकि वहाँ एक गहरा अभेद और समत्व है; हर्ष-विषाद, कांचन-माटी, महल-कुटीर, जन्म-मरण, सब समत्व की धरती पर एक हैं वहाँ, दो नहीं हैं; इसलिए, जिन्होंने हँसते-हँसते जीने की स्वीकृति दी है, स्वयं को स्वयं में; वे हँसते-हँसते मर भी सकते हैं; वस्तुत: अभय और अन्यों लिए बारहमासी स्वस्ति ही हँसी के जनक-जननी हैं।
तीर्थकर : जन. फर. ७९/१६
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