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________________ अमृत निरन्तर झरता रहता है, उनके करुणा-भरित नेत्रों से, हास्य- पूरित अधरों से । तभी तो उनका स्नेह अपने-पराये की संकीर्ण सीमा को लाँघकर इतना विस्तृत हो गया था; अहं की परिधि को तोड़कर सुख - दुःख की अनुभूति में एकरस हो गया था । तुलना नहीं थी उनकी किसी से । भक्तमाल की कथा है -- एक दरिद्र ब्राह्मण को ज्ञात हुआ कि सनातन गोस्वामीजी के पास एक ऐसी स्पर्शमणि है जिससे लोहा सोना हो जाता है । बेचारा तुरन्त दौड़ा उनके पास लगा गिड़गिड़ाने और याचना करने - 'भगवन् ! मैं बहुत दरिद्र हूँ । कुछ सुवर्ण दान कर मेरी दरिद्रता समाप्त कर दें ।' गोस्वामी जी आश्चर्यचकित हो कहने लगे- 'सुवर्ण दान ! मेरे पास कौन-सा सुवर्ण है ? मैं तो भिक्षान्न से अपनी उदर- पूर्ति करता हूँ, पर्णकुटी में रहता हूँ ।' ब्राह्मण ने कहा'आप मुझे टाल नहीं सकते। मैंने सुना है, आपके पास लोहे को सुवर्ण बना देने वाली पारसमणि है।' सुनते ही उन्हें अचानक याद आया कि सचमुच एक दिन उन्हें स्नान के समय यमुना किनारे एक पारसमणि मिली थी जिसे अपने लिए निरर्थक समझकर वहीं किनारे पर गाड़ दिया था । उन्होंने तुरन्त स्थान का अता-पता बता दिया और कहा - 'वहाँ जाकर ले लो' । ब्राह्मण ने उस स्थान को खोदकर मणि तो प्राप्त की पर सोचने लगा- 'जिस मणि के लिए मैं इतना व्याकुल हूँ उसे व्यर्थ समझकर गोस्वामीजी ने इस प्रकार गाड़ दिया है ? अवश्य ही उनके पास पारसमणि से भी बढ़कर कोई ऐसी वस्तु है, जिसके सम्मुख यह फीकी है। बस मुझे तो वही प्राप्त करना है।' उसने मणि यमुना में फेंक दी और खाली हाथ गोस्वामीजी के पास जाकर खड़ा हो गया । अब लगा याचना करने, वही पाने की। मैंने भी अपनी उन शिक्षिका से कई बार यह प्रश्न किया था कि वह कौन-सी अमूल्य निधि है, जिसे पाकर वे इतनी खुश हैं । उन्होंने मुझे उस रहस्य को ही नहीं समझाया, हँसना भी सिखाया है; अतः मैं भी हँसती रहती हूँ, अहर्निश हँसती रहती हूँ, ग़मगीन होकर भी हँसती रहती हूँ । मुझे इस प्रकार हँसते देखकर कुछ ऐसे लोगों को ग़लत फहमी हो जाती है, जिन्होंने धन को ही हँसने का आधार माना है, वे कहने लगते हैं- मैं अवश्य ही भीतर से भरी हूँ । ठीक ही तो कहते हैं वे । भरी तो हूँ ही । खाली पात्र से तो निकलती है मात्र प्रतिध्वनि, किन्तु हाँ मैं उन जड़ पदार्थों से नहीं भरी हूँ, जिन्हें भेद कर उन्मुक्त हास्य बाहर ही न आ सके । एक ज्ञान, दूसरा प्रेम समग्र शरीर के मंगल में, स्वास्थ्य में एक आनन्द देने से दो वस्तुएँ प्राप्त होती हैं- एक ज्ञान और "आयु में आनन्द है; है । इसी आनन्द का भाग कर दूसरा प्रेम । " Jain Education International - रवीन्द्रनाथ ठाकुर तीर्थंकर : जन. फर. ७९/१५ www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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