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________________ हँसी एक ईश्वरीय देन है। बहुत बड़ी देन। आयुर्वेद कहता है कि जो सदैव दिल खोलकर हँसता है, वह दीर्घायु होता है; क्यों होता है ? क्योंकि दिल खोलकर वही हँस सकता है, जिसका हृदय निश्छल है, निर्मल है और जो भीतर-बाहर एक है । जिसकी गुण-ग्राहक दृष्टि दोष नहीं, अच्छाई खोजती है, उन अच्छाइयों से स्नेह करती है-सच्चा स्नेह, निःस्वार्थ स्नेह ! जिसका हृदय संवेदनशील है, दृष्टि स्वच्छ; वह हर वस्तु को उसी रूप में देखता है, जिसमें वह है। यही लक्षण है उस देवत्व का जो अमृत पीना जानता है, पिलाना जानता है और गरल को पचाना जानता है। ___ हँसी मानव के अन्तर्गत भावों की, विचारों की एक विलक्षण पहचान है, एक कसौटी है। कोई हँसी दैवी होती है, कोई मात्र स्मिति; किसी की हंसी कुटिलताओं से पूर्ण होती है, तो किसी की प्रलयंकारी। भरी राजसभा में पांचाली का अपमान करने वाला दुर्योधन भी खिलखिला कर हँसा था। वीर अभिमन्यु की घायल देह पर गदापात करने वाला दुःशासन भी अट्टहास कर रहा था। द्यूत में पासा जीतकर कपटी शकुनि भी मुस्कुराया था, कैकयी के कान भर कर अयोध्या में आग लगाने वाली कुटिल मंथरा भी मुस्कुरायी थी। इन्द्र को अस्थिदान देते समय महान् दधिचि के अधरों पर भी एक मुस्कुराहट थी, और जहर का प्याला पीते हुए सुकरात और मीरा के अधरों पर भी वही थी। जितने प्रकार के हैं शाश्वत भाव उतनी ही प्रकार की है हँसी भी; किन्तु जीने के लिए हमें चाहिये वह सात्त्विक हँसी, जो किसी को आघात न पहुँचाये, किसी का मर्म न छेदे; किसी के जीवन में विष न घोले; अपितु वह अपनी निश्छलता से जीवन की शून्यता को प्रसन्नताओं से भर दे; कटुता को सरस कर दे, मत प्राणों में संजीवन संचारित कर दे। वह किसी भी स्थिति में विषम न हो बस हो संगीत के आरोह और अवरोह के पश्चात् आने वाले उस सम की भांति जिसकी मधुरता जीवन को उल्लसित कर देती है, नवचेतना से भर-भर देती है। .... मेरी एक शिक्षिका थीं। कमलाधर। बाल विधवा थीं वे। न अपना उनका कोई ससुराल में था, न पीहर में। सुना था उनके एक लड़का हुआ था, पर वह भी उनकी गोद. सूनी कर शीघ्र ही चल बसा । बड़े संघर्ष के पश्चात् वे लिख-पढ़ पायी थीं। बस यही थी उनकी आजीविका, यही था उनका धन : मैंने कभी उन्हें रोते नहीं देखा। जब देखा तब हँसमुख। जैसे उनके जीवन में कहीं, कोई अभाव था ही नहीं। न उन्हें किसी से कोई शिकवा रहता, न कोई शिकायत। सब उन्हें चाहते, सब उनका सन्मान करते । क्यों न करते ? सबके सुख-दुःख की सतत् सहभागी जो थीं वे । मैं तो उन्हें देखकर इतनी विस्मित हो जाती कि कैसे उन्होंने जीवन को इतने सहज रूप में ले लिया है ! कभी-कभी लगता असीम वेदना की उष्णता ने जैसे उनकी कुण्डलिनी को जागृत कर दिया है, अतः उनके ब्रह्मरन्ध्र का तीर्थंकर : जन. फर. ७९/१४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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