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हँसते-हँसते जिये
00 हँसी मनुष्य के अंतरंग की सही पहचान भी है; कोई हँसी दैवी होती है कोई सादा मुस्कराहट, कोई कुटिल कोई प्रलयंकर-किन्तु जीने के लिए हमें चाहिये वह सात्त्विक हँसी, जो किसी को आघात न पहँचाये, किसी का मर्म 'विदीर्ण न करे, किसी के जीवन में विष न घोले, वरन अपनी निष्कपटता से जिन्दगी के सन्नाटों को खुशियों से भर दे।
। श्रीमती राजकुमारी बेगानी
___ जीवन-जीना एक बहुत बड़ी कला है और उससे भी बड़ी कला है हँसतेहँसते जीना। संसार में बिरले ही मनुष्य ऐसे होते हैं, जो नहीं रोते । साधारणतया देखा जाता है कि जिसके पास रोटी नहीं है, वह रोटी के लिए रोता है; जिसके पास रोटी है, वह आरोग्य के लिए रोता है; धनहीन धन के अभाव में रोता है, धनवान अधिक प्राप्ति की कामना में घुलता है; जिसके पुत्र नहीं, उसे संसार ही सूना-सा लगता है; जिनके पुत्र हैं वे निरन्तर उनकी अयोग्यता को ही झींकते रहते हैं। एक अजीब समस्या है यह संसार ! ! उपनिषद् कहता है-'सब कुछ आनन्द से उत्पन्न हुआ है, आनन्द से जीवित है'। सुनकर लगता है कि न जाने किस मौज में कह डाली गयी है यह बात। यदि यह सत्य है तो संसार में इतनी व्यथा, इतनी पीड़ा, इतनी वेदना क्यों है ? क्यों निविड़ निराशाओं और कुण्ठाओं के घने कुहासे से इतना आवृत्त है हमारे चारों ओर का परिवेश कि हमारे इर्द-गिर्द खड़ी आनन्द की वे ऊंची मीनारें, सुख की वे सुन्दर इमारतें हमें दृष्टिगोचर ही नहीं होती? एक दीर्घ कतार में मुह बाये खड़े ये प्रश्न सदैव-सदैव हमसे पूछते हैं क्यों, क्यों, क्यों???
___शायद इसलिए कि हम यह भूल जाते हैं कि मानव मात्र गरल-पुंज ही नहीं होता, वरन् उसमें कहीं कोई अमृत-कुम्भ भी है; किन्तु हाँ-आवश्यकता है ऐसे किसी नीलकण्ठ की जो गरल को स्वयं में समाहित कर अमृतपान का सुयोग उपस्थित कर सके; अन्य के सम्मुख, स्वयं के सम्मुख ! मैं ऐसे बहुत से सम्पन्न परिवारों को जानती हूँ जहाँ कोई अभाव नहीं है। धन-दौलत, सुख-सुविधाओं से भरा-पूरा कुटुम्ब, नीरोग शरीर; फिर भी वहाँ न किसी को चैन, न किसी को शान्ति। क्योंकि वहाँ हर व्यक्ति एक दूसरे को गलत देखता है, गलत समझता है अतः परस्पर गलत व्यवहार करता है; तिस पर कोई किसी को सह नहीं सकता और आफत यह है कि कोई किसी को छोड़ भी तो नहीं सकता !! बस, सब एकदूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं, एक-दूसरे का छिद्र देखते रहते हैं और निरन्तर रोते रहते हैं। ऐसे में भला रोयें न तो हँसें भी कैसे ? तो क्या हमने जिन वस्तुओं को हँसने का आधार मान लिया है वे ग़लत हैं ? इन परिवारों को देखकर ती ऐसा ही लगता है सचमुच ग़लत हैं।
तीर्थकर : जन. फर. ७९/१३
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