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________________ अपने कर्तव्य की धुरी बना लेते हैं नयी लीक को निर्मित करते हुए। पहाड़ पर अपने अस्तित्व को टाँकते हुए गुलाब के हँसते हुए चेहरे को देखकर मेरी सारी मायूसी और निराशा का घटाटोप कुहरा एक पल में विनष्ट होगया शीतल सुगंधित हिलोर से भर गयी मेरी आन्तर सृष्टि फिर मुझे अहसास होने लगा कि मेरे जीवन का एक और गीयर बदल गया हाथ स्टीयरिंग पर महसूस करने लगते हैं गति की नयी धड़कनें नयी उमंगों के नये सोपान और नये उत्साह की बुलन्दी जिन्दगी की बालकनी में एक नयी ऊष्मा भरते हुए। आज जब मैंने अपने कमरे की खिड़की खोली तो मैंने देखा कि एक गुलाब का फूल जो उग आया है मेरे द्वार के सामने अड़े हुए पहाड़ पर बड़ी मस्ती के साथ हँस रहा है अपने आन्तर सौंदर्य के नये-नये इन्द्रधनुषी आयामों को . प्रस्फुटित करते हुए। पहाड़ के सीने को चीर कर वह गुलाब का फूल ऊपर उठा, यह कहता हुआ कि"मुसीबत और कठिनाइयों की दीर्घा में बैठकर जो हस्ताक्षर अपने अधरों पर मुस्कराने की सुरम्य रेखाओं को. अक्षुण्ण रख पाते हैं वे ही यथार्थ में कीर्ति के आसमान पर . सूर्य बनकर प्रदीप्त होते हैं सृष्टि को ज़िन्दादिली का नया इतिहास प्रदान करते हुए। वस्तुतः संघर्षों के उच्चत्तम बुर्ज पर भी जो व्यक्ति हँसते-हँसते जीना जानते हैं उनका ही गुणगान धरती के विशाल प्रांगण में होता है उनके अनुपम कृतित्व को अमरता का सुन्दरतम लबादा पहनाते हुए। हमेशा स्मरण रखो कि प्रतिष्टा की मीनार का मञ्जुल मयंक वही बन पाते हैं, जो काँटों की असहनीय चुभन में भी हँसते-हँसते जीना हँसते हुए गुलाब सान्निध्य में उमेश जोशी तीर्थकर : जन. फर. ७९/१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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