SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "जी ; क्या देख रहे थे वे वहाँ बाजार में ?" जी कुछ नहीं और क्या कुछ भी नहीं। न भौंचक होने की जरूरत है, न विस्मय-विमुग्ध । बात एकदम साफ़ है कि वे बाजार में कबूतरबाजी का मैच देख रहे थे। आपका जी चाहे, तो आप नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं, उनके नाम पर कुढ़ सकते हैं; राष्ट्रपति ने भी कबूतर देखने की बात सुनकर यही किया था, पर एक बात पहले ही बता दूं आपको कि तब आप का भी वही हाल होगा, जो उनका उत्तर सुनकर राष्ट्रपति का हुआ था। सुन लीजिये वह उत्तर राष्ट्रपति ने अपने देश की भाषा में जब उनसे कहा कि क्या कबूतरों का मैच देखना इस राष्ट्रीय काम से ज्यादा जरूरी था ? तो वे बोले-“यह जरूरी और बेजरूरी का या बढ़िया-घटिया का सवाल नहीं है, यह तो आनन्द का प्रश्न है। यह काम बहुत जरूरी है, मैं यह बात मानता हूँ, पर अचानक जीवन में आनन्द का गुदगुदाने वाला जो क्षण आ गया था, मैं भला उसकी उपेक्षा कैसे कर सकता था राष्ट्रपति महोदय !" सुनकर राष्ट्रपति को हँसी आ गयी। आप भी अब हँस सकते हैं, पर इस विद्वान् की इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि संघर्षों और खींच-तानियों से भरी घड़ियों में जीवन को गुदगुदाने वाले क्षणों का बहुत महत्त्व है और हम उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। ... गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की चप्पल की कील उखड़ी हुई थी। समय की वात. उस पर उनका ध्यान नहीं गया और वे उसे ही पहने हुए एक सभा में भाषण देने चले गये। कील पैर में चुभती रही और खून रिसता रहा, पर उनके भाषण का प्रवाह बहता रहा। वे भाषण देकर मंच से उतरे, तो लोगों ने देखा कि चप्पल में काफी खून लगा है। किसी ने कहा-"जब कष्ट हो रहा था, तो आप रुके क्यों नहीं?" गुरुदेव ने उत्तर दिया-"सब बन्धु भाषण सुनकर आनन्द ले रहे थे और मैं सबको आनन्द परोसने का आनन्द ले रहा था। ऐसे आनन्द के क्षण में मैं दु:ख की ओर ध्यान देता, तो वह क्षण खण्डित हो जाता। वही बात कि जीवन को गुदगुदाने वाले कुछ क्षण जीवन में महत्त्वपूर्ण हैं। इन क्षणों का कोई समय नहीं होता और इन क्षणों को जन्म देने का कोई निश्चित तरीका-प्रकार भी नहीं है। समालोचकप्रवर आचार्य श्री रामचन्द्र शुक्ल बहुत गम्भीर विद्वान् थे और कवि-सम्मेलनों में अपनी कविता, बाँचने के स्वर में पढ़ा करते थे, उसे गाते न थे, पर उनके एक मित्र अपनी कविता खब गाकर पढ़ा करते थे। तीर्थकर : जन. फर. ७९/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy