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________________ इसलिए हँसना एक कला है, सौन्दर्यवृद्धि का सबमें बड़ा उपकरण है, वह एक विज्ञान भी है, यानी उसका सहज व्यक्तित्व के साथ कोई सरोकार, कोई संगति है; रुदन की कोई संगति नहीं है, वह जीवन-मरण दोनों से असंगत, अयुक्तियुक्त स्थिति है; प्रश्न है - क्या आप कभी हँसे हैं ? क्या आप हँसना जानते हैं ? क्या आप हँस सकते हैं ? क्या आप सुख-दुःख दोनों में एक-सी ऊँचाई की हँसी हँस सकते हैं ? क्या आप कष्टों के चेहरे, जो असंख्य और विविध हैं, जानते हैं-उनसे वाकिफ़ हैं ? क्या आप इन आकृतियों से भयभीत रहते हैं और उनसे भागना, या उन्हें टालना चाहते हैं, या एक अपराजिता मुस्कराहट के साथ उनसे निबटने की कोई चुस्त तैयारी रखते हैं ? क्या आप इस रहस्य को जान गये हैं कि कष्ट जल-तरंग है, या बादलों में कौंधती बिजली की तरह ही अजर-अमर नहीं हैं, उसकी उम्र हवा के एक झोंके, या पानी के बुबुद् की उम्र से अधिक नहीं है? और यह कि जो सहता है, सह लेता है, सहता आया है; जो बहता है, बह लेता है, बहता आया है, अपराजित है; और यह कि जो सहने से इनकार कर गया है, बहने से मुकर गया है, जड़ है, नासमझ है, रुक गया है, बल्कि कहें- बहुत लम्बे समय के लिए चल पाने में असमर्थ किसी दलदली जमीन में धंस गया है? ज्यादातर लोग - मौत से, मौत की खबर-खौफ़ से; कष्ट से, संकट से, विपदा से डरते हैं, क्यों? इसलिए कि वे नहीं जानते कि अधिक स्वस्थ होने के लिए निर्विकार होना आवश्यक विकारों का निरसन हँसी से होता है, उल्लास से होता है, प्रसन्नताओं और परोपकारों से होता है, वस्तुतः मौत मौत है ही नहीं, वह जीवन है, या किसी जीवन की शुरुआत है; वह समस्या नहीं है, समाधान है, समाधान इसलिए कि वह सर्वत्र है; इमारत मरती है, कुर्सी मरती है, मेज मरती है, मशीन मरती है, जो भी है कुछ अन्य होने के लिए मरता है, यानी अपनी जगह किसी अन्य के लिए छोड़ देता है; (शेष पृष्ठ १६ पर) तीर्थंकर : जन. फर. ७९/४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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