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व्यक्त किया कि प्राच्य ग्रन्थों के संपादन अध्यक्ष-पद से बोलते हुए हिन्दू विश्वजैसे महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए किसी भी विद्यालय के कुलपति डॉ. हरिनारायण ने भारतीय विश्वविद्यालय में स्वतन्त्र विभाग कहा कि ऋषियों, मनियों की विद्याएँ नहीं है। उन्होंने कुलपतिजी की ओर इंगित बहुत गूढ़ होती हैं, इसलिए उन पर निरन्तर करते हए कहा कि हिन्दू विश्वविद्यालय को 'रिसर्च' होते रहने की आवश्यकता है। ऐसे विभाग की स्थापना के लिए पहल विश्व में व्याप्त अशान्ति को दूर करने का करनी चाहिये।
भी एक उपाय यही हो सकता है कि हम
ऋषियों की बातों को ध्यान में रखें, समझें प्राच्य ग्रन्थ-प्रदर्शनी का उद्घाटन
और उनको अंशतः ही सही, जीवन में करते हुए ‘जैन सिद्धान्त-कोश' के प्रणेता
प्रयोग में लायें। उन्होंने विश्वविद्यालय सत श्री जिनेन्द्र वर्णी ने अनसन्धान-कार्य
की ओर से ऐसे आयोजन के लिए पूर्ण की सामान्य भूमिका का परिचय देने के
सहयोग का भी आश्वासन दिया। पश्चात् कहा कि सभी विद्याओं की भाँति जैनविद्या भी एक है, इसमें भी अन्य
उद्घाटन समारोह का समारोप करते विद्याओं की भाँति अगणित बहुमूल्य रत्न · हुए
हुए शिविर के संयोजक एवं संचालक डा. भरे पड़े हैं, कुछ का जगत् को परिचय है,
गोकूलचन्द्र जैन ने बताया कि उनके प्रस्ताव कुछ सन्दिग्ध हैं, कुछ सांप्रदायिक पक्ष के
पर अखिल भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत् कारण उलटे प्रतीत हो रहे हैं, और कुछ
परिषद् ने प्राच्य ग्रन्थों के संपादन एवं
अनुसन्धान के लिए भारत-भर में शिविर को अभी वायमण्डल में आने का सौभाग्य ही प्राप्त नहीं हुआ है। इस विद्या को चार
आयोजित करने का जो निर्णय किया है, अनुयोगों में विभाजित किया गया है
उस शृंखला का यह प्रथम शिविर है। यह प्रथमानुयोग, द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग तथा
एक महत्त्वपूर्ण समारम्भ का मंगलाचरण करणानुयोग । प्रथमानुयोग में इतिहास, पुराण तथा कथाएँ निबद्ध हैं। द्रव्यानुयोग प्राच्य ग्रन्थ-प्रदर्शनी में संस्कृत, के दो विभाग हैं-न्यायशास्त्र तथा तात्त्विक प्राकृत और अपभ्रंश की कतिपय दुर्लभ व्यवस्था। चरणानयोग में साधना, योग पाण्डुलिपियाँ, विशिष्ट संपादित ग्रन्थ, तथा तन्त्र का विवेचन है। करणानयोग के शोध-प्रबन्ध तथा आन्तर शास्त्रीय अध्ययनदो विभाग हैं-कर्म-सिद्धान्त और लोक- अनुसन्धान की संभावनाओं को उजागर विभाग। इन चारों ही अनुयोगों में अनेकों । करने वाले ग्रन्थों को प्रदर्शित किया गया बातें अनुसन्धान की प्रतीक्षा कर रही हैं। था। ऐसे ग्रन्थ भी प्रदशित थे, जिनकी
संसार-भर में एक भी पाण्डुलिपि शेष नहीं उन्होंने विद्वानों और शोधकर्ताओं से है. फिर भी विद्वानों ने अथक परिश्रम करके अनुरोध किया कि पूर्वग्रह और संप्रदाया
टीका-ग्रन्थों से उन ग्रन्थों का पुन: संकलन भिनिवेश से ऊपर उठ कर वे अनुसन्धान किया है। में प्रवृत्त हों, तभी भारत की पुरासंपदा
सात दिनों में उद्घाटन समारोह तथा को उजागर किया जा सकेगा।
समारोप सहित तेरह गोष्ठियां संपन्न हुई। श्री वर्णीजी ने संस्कृत, प्राकृत, विशेषता यह थी कि गोष्ठियों के लिए अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध अध्यक्ष, संचालक और वक्ता पारम्परिक विशाल ग्रन्थ-भण्डार की चर्चा करते हुए ढंग से पूर्वनिर्धारित नहीं थे। गोष्ठियों के भारतीय मनीषा में जैन सन्तों के महत्त्वपूर्ण अध्यक्ष और संचालकों ने विभिन्न गोष्ठियों योगदान के अध्ययन-अनुसन्धान में जुट के चर्चनीय विषयों पर अपने-अपने विचार जाने का आग्रह किया।
विस्तार के साथ व्यक्त किये तथा उपस्थित
आ. वि. सा. अंक
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