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________________ सम्यग्दर्शन, व्यवहारनय-निश्चयनय, निमित्त-उपादान, चारों अनुयोगों की सार्थकता, पंचमकाल में मुनियों का अस्तित्व, ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन की शैली और ध्यान की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया। प्रत्येक परिच्छेद के आरम्भ में 'तथ्य क्या है' शीर्षक से उस परिच्छेद के प्रमुख विचार-बिन्दु संक्षेप में दे दिये गये हैं। पुस्तक के आरंभ में प्रवचन-पद्धति पर भी विचार किया गया है। मैथेडॉलोजी पर विचार करने वाली यह पहली पुस्तक है। विश्वास है इसका शिविरों में समीचीन उपयोग होगा, और शिविरार्थियों को संक्षेप में वह सब मिल जाएगा, जो सिद्धान्त के तल पर प्रवचनकर्ता देना चाहते हैं। वस्तुतः ऐसे ग्रन्थों की इस समय अत्यधिक आवश्यकता है, आ. ज्ञानमतीजी की इस पहल के लिए समाज को उनका अनुगृहीत होना चाहिये। श्रमणोपासक (मासिक); वर्ष १६, अंक ३-४, अगस्त १९७८; समता विशेषांक; संपादक-जुगराज सेठिया, मनोहर शर्मा, डा. शान्ता भानावत; अंक का मूल्य-दस रुपये; पृष्ठ ३०६+६८ विज्ञापन-पृष्ठ; रायल-१९७८ । आलोच्य मासिक अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ का मुखपत्र है, जिसने जैन समाज में जैनधर्म और दर्शन के स्वस्थ चिन्तन की पहल की है और उसके मानस को उद्वेलित किया है। पत्र विगत अठारह वर्षों से नियमित प्रकाशित है और इस बीच इसके खाते में कई अविस्मरणीय विशेषांक दर्ज हुए हैं। प्रस्तुत विशेषांक ६ खंडों में बंटा हुआ है। पहले चार खण्डों में समता के नानाविध पक्षों पर विद्वानों के ५९ लेख हैं, पाँचवें में संघ की गतिविधियों का ब्यौरा है, तथा छठे खण्ड में विज्ञापन हैं। हमें विश्वास है अंक ने समता-समाज की संरचना को जिस पवित्र मंशा से सामने रखा है, उसे समझा जाएगा और इससे प्रेरित होकर कम-से-कम सारे जैन समाज को सन्धिस्थ तो किया ही जाएगा ताकि आने वाले समता-मानव की रचना में स्याद्वाद में विश्वास रखने वाली यह कौम अपनी बहुमूल्य भूमिका निभा सके। आशा की जानी चाहिये कि समता का विचार यहीं समाप्त नहीं हो जाएगा वरन् इसका लाभ उठाकर उभर आयीं संभावनाओं को स्वीकृतिपरक मानसिकता में झेला-सहेजा जाएगा। क्या विज्ञापन ऐसे अवसरों पर सहयोग नहीं हैं और उन्हें विज्ञापनदाताओं की विनम्र स्वीकृति-सहमति से साधारण कागज पर नहीं छापा जा सकता? इस दिशा में पहल की जानी चाहिये और बचे हुए धन का कहीं अन्यत्र सदुपयोग होना चाहिये। इतने सुष्ठु और सामयिक प्रकाशन के लिए संपादक और संघ दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं । अंक संकलनीय और मननीय है। प्राप्ति-स्वीकार भगवान महावीर-कथा (शोध-प्रबन्ध) : डा. शोभनाथ पाटक; पाठक प्रकाशन, कनवानी-२२२१४६ (जौनपुर, उ. प्र.) ; प्राप्ति-स्थान : डा. शोभनाथ पाठक, मेघनगर ४५७७७९ (म. प्र.); मूल्य-तीस रुपये ; पृष्ट-२२४; डिमाई, द्वितीय संस्करण, १९७८ । तीर्थकर : नव-दिस. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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