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चार्यों के व्यक्तिगत साहित्य-कोश तैयार किये गये और उन्हें प्रकाश में लाया गया तो यह एक अविस्मरणीय कार्य होगा, जो स्वाध्याय के क्षेत्र को समृद्ध बनायेगा। स्पष्ट ही आलोच्य कोश श्रीमद्राजचन्द्र ही नहीं अपितु जैनधर्म-दर्शन को समझने में एक महत्त्वपूर्ण सोपान है; क्योंकि समीक्षक की विनम्र मान्यता है, कि श्रीमद् और जैनतत्व-दर्शन दो अलग-अलग अस्तित्व नहीं हैं।
___ जैन शासन में निश्चय और व्यवहार : पं. वंशीधर व्याकरणाचार्य; श्रीमती लक्ष्मीबाई पारमार्थिक फण्ड, बीना, मध्यप्रदेश; मूल्य-दस रुपये; पृष्ठ ४६+३२० ; डिमाई-१९७८।
प्रस्तुत ग्रन्थ एक मनीषी विद्वान् की एक बड़े अभाव को पूरा करने वाली कृति है, जिसे एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजी ने असीसा है, और जिसकी भूमिका न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल कोठिया ने लिखी है। जैन समाज में निश्चय और व्यवहार को लेकर जितना प्रांजल चिन्तन आज चाहिये, नहीं है। वस्तुतः सापेक्ष दृष्टि की अनुपस्थिति है, और कमी है इन दोनों नयों के परिपूरक व्यक्तित्व को समझ पाने की। बहस इन संदर्भो की प्रायः सभी साधु-शामियानों में है, किन्तु कोई पूर्वग्रहमुक्त विशुद्ध दार्शनिक दृष्टि से विचार करने को तैयार नहीं है। ऐसे संशयाकुल वातावरण में विद्वान् लेखक की यह कृति निश्चय ही नवसूर्योदय का कारण बनेगी क्योंकि सारा ग्रन्थ सैद्धान्तिक है, और एक गंभीर, अनासक्त, संयत, संतुलित मानसिकता के साथ लिखा गया है। ग्रन्थ के आठ भाग हैं। 'अन्तिम वक्तव्य' में प्राय: सभी मुद्दे स्पष्ट कर दिये गये हैं। सारा जोर वस्तु-व्यक्तित्व के सर्वांग जानने पर दिया गया है और स्पष्ट कर दिया गया है कि एकांगिता से बचा जाना चाहिये, तथा ज्ञाता-दृष्टि को सहृदयतापूर्वक समझना चाहिये। विश्वास है प्रस्तुत ग्रन्थ समाज में एक स्वस्थ वातावरण की सृष्टि करेगा और जैनधर्म तक सही एप्रोच बनायेगा। यद्यपि इसके व्यापक रूप में पढ़े जाने में संदेह है तथापि जब भी, जो भी इसे पढ़ेगा, उसका मन मंजेगा और वह पूर्वग्रहमुक्त हो सकेगा। दार्शनिक गूढ़ताओं को देखते हुए भाषा सरल है और यदि कोई पाठक प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली को जान ले तो उसे विषय-वस्तु को समझने में देर नहीं लगेगी। हमें आशा है पंडितजी अपनी प्रशस्त लेखनी का और अधिक लोकमंगलकारी उपयोग करेंगे।
प्रवचन-निर्देशिका; आर्यिका ज्ञानमतीजी; दि. जैन त्रि. शोध-संस्थान, हस्तिनापुर, मेरठ; मूल्य-पाँच रुपये; पष्ठ २२६; डिमाई-१९७७ ।
विवेच्य पुस्तक प्रशिक्षण-शिविरों को ध्यान में रख कर लिखी गयी एक पाठ्य पुस्तक है, जिसे हम 'शिविरों की गीता' कह सकते हैं। इसे विदुषी लेखिका ने ४६ ग्रन्थों के परिमन्थन के उपरान्त लिखा है। पुस्तक शिविरार्थियों के लिए तो उपयोगी है ही, उन लोगों के लिए भी बड़े काम की है, जो जैनधर्म-दर्शन की अन्तरात्मा को समझना चाहते हैं। इसमें ७ परिच्छेद हैं जिनके अन्तर्गत क्रमशः
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आ.वि.सा. अंक
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