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________________ आरामदेह इंतजाम तथा अपने तक नवागन्तुकों के पहुंचने पर अनावश्यक नियन्त्रण । इसी तरह के एक कृत्रिम वातावरण से इस तरह के लोग अपना झूठा, किन्तु तुरन्त प्रभावोत्पादक वर्चस्व कायम कर लेते हैं और फिर चाहे जिस धर्म को प्रतिपादित करने का प्रयत्न करते हों, उसकी नींव खोखला कर देते हैं । ऐसे लोगों के पास या तो भाषा का एक कृत्रिम “फोर्स" होता है या कुछ ऐसे लोग हैं/होते हैं जो भाषा पर पेशेवर अधिकार रखते हैं और इनके लिए आवश्यक प्रचार-तन्त्र उपलब्ध करा देते हैं। वस्तुत ऐसे लोग इन तथाकथितों के पास न हों तो कोई काम चल ही नहीं सकता। इन मानदण्डों की पृष्ठभूमि पर सब से बड़ी मानसिकता पूजैषणा या लोकेषणा की काम करती है; महज एक इसी यशस्विता अथवा कीर्ति के लिए सारा तामझाम और फौजफाटा खड़ा किया जाता है । जैन साधुओं में भी इन दिनों यह प्रवृत्ति प्रविष्ट होती जा रही है, किन्तु आज भी कुछ ऐसे साधु-मुनि हैं जो लोकषणा से ऊपर उठे हुए हैं और विशुद्ध आध्यात्मिक साधना में लगे हुए हैं। उनके पास एकाध ग्रन्थ, कमण्डलु-पिच्छी के अलावा कुछ नहीं है । क्या हम ऐसा प्रयत्न कर सकते हैं कि आध्यात्मिक संतों की कुछ धार्मिक सांस्कृतिक पहचानें कायम कर सकें ? मुझे विश्वास है इस ओर समाज का और सुलझे साधवर्ग का ध्यान अवश्य जाएगा, ताकि नकली-असली के बीच कोई स्पष्ट भेद-रेख! डाली जा सके। -गुलाबचन्द आदित्य बोधकथा चालीस वर्ष और सिर्फ चार आने !! स्वामी रामतीर्थ के जीवन की एक कथा है। लाहौर छोड़ने के पश्चात् मस्ती की दशा में वे ऋषिकेश से आगे गंगा के किनारे घूम रहे थे। एक दिन एक योगी उन्हें मिला। स्वामीजी ने उनसे पूछा-'बाबा, कितने वर्ष से आप संन्यासी हैं ?' योगी ने कहा-'कोई चालीस वर्ष हो गये।' स्वामी रामतीर्थ बोले-'इतने वर्षों में आपने क्या-कुछ प्राप्त किया है ?' योगी ने बड़े अभिमान से कहा-'इस गंगा को देखते हो? मैं चाहूँ तो इसके पानी पर उसी प्रकार चल कर दूसरी ओर जा सकता हूँ, जैसे कोई शुष्क भूमि पर चलता है।' स्वामी रामतीर्थ ने कहा-'उस पार से वापस भी आ सकते हैं आप?' योगी ने कहा-'हाँ, वापस भी आ सकता हूँ।' स्वामी रामतीर्थ बोले-'इसके अतिरिक्त कुछ और?' योगी ने कहा-'यह क्या छोटी बात है ?' स्वामीजी ने हँसते हुए कहा-'बहुत छोटी-सी बात है बाबा ! चालीस वर्ष आपने खो दिये। नदी में नौका भी चलती है। दो आने उधर जाने के लगते हैं, दो आने इधर आने के। चालीस वर्ष में आपने वह प्राप्त किया, जो केवल चार आने खर्च करके किसी भी व्यक्ति को मिल सकता है। तुम अमृत के सागर में गये अवश्य, किन्तु वहाँ से मोती के स्थान पर कंकर समेट लाये।' ये सब-की-सब सिद्धियाँ आत्मोन्नयन के मार्ग में बाधाएँ हैं; आत्मोद्घाटन के रास्ते में रुकावट हैं। केवल सांसारिक सफलता है यह, आत्मा को प्राप्त करने का मार्ग नहीं है ।। १०० आ. वि. सा. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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