________________
जीवन-चित्र
रत्नराज से राजेन्द्रसूरि
राजस्थान के लहू में पार्थिव पराक्रम के साथ आध्यात्मिक शूरता कितनी है, इसका प्रमाण भरतपुर में ३ दिसम्बर, १८२७ को तब मिला जब एक मामूली से व्यवसायी कुल में शिशु रत्नराज ने जन्म लिया। एक साधारण खानदान, सादगी और निष्कपटता का निर्मल वातावरण, सर्वत्र चाँदनी से हिमधवल संस्कार । रत्नराज के पिता का नाम ऋषभदास था, माता का केसरबाई। दो भाई, बड़े माणकलाल ; दो बहनें, बड़ी गंगा, छोटी प्रेम । सबमें परस्पर प्रगाढ़ स्नेह था, सब मिलजुलकर काम करते, सूरज के साथ उठते, कथा-कहानियों के साथ सोते। इस तरह कुटुम्ब में कुल छह प्राणी थे। कर्त्तव्य और श्रम की अनवरत उपासना में कसा हुआ एक भव्य कुटुम्ब था रत्नराज का। स्वयं रत्नराज का व्यक्तित्व सरल, निश्छल और सहृदय था। उन्हें सबका खूब प्यार मिला था। घर-कुटुम्ब, पास-पड़ोस सबका उन पर विश्वास था, सबकी उन पर ममता थी। वे स्वयं भी उदार थे; न किसी से तकरार, न किसी से बैर, न किसी को कोई कष्ट । 'संसार क्या है, क्यों है, कैसा है ? यहाँ सब इतने दुःखी क्यों हैं ? क्या सांसारिक दुःखों का कोई अन्त नहीं है ? इससे मुक्ति का कोई निर्विकल्प मार्ग नहीं है ? क्या यह गौरख-धन्धा अछोर-अनन्त है ? ज्ञान और आनन्द का कोई स्रोत इन परेशानियों और उलझनों में खुल सकता है या नहीं?' ऐसे सैकड़ों संकल्प-विकल्प उनके मन के आकाश पर छाये रहते, कुछ दिनों वे इनकी अनसुनी करते रहे किन्तु अन्ततः वह मोड़ आ ही गया जब इन सवालों के समाधान के लिए उठे उनके कदम कोई रोक न सका।
___ शैशव वैसे फूलों की शैया पर ही बीता किन्तु कैशोर्य में उनकी सुकुमार पगतलियाँ काँटों से बिंधने लगीं। शिक्षा-दीक्षा सामान्यतः उन दिनों जैसी रूढ़ और परम्परित थी, हुई; रत्नराज का ध्यान मुख्यतः धर्म और अध्यात्म की ओर ही गया। ग्यारह वर्ष की नन्हीं वय में अपने अग्रज के साथ वे जैन तीर्थों की वन्दना पर निकले। घूमने और जानने की वृत्ति उनमें बाल्यावस्था ही से थी; किन्तु सोद्देश्य, निरुद्देश्य भटकना उनके रक्त में न था। ज्ञान के लिए उनमें अबुझ प्यास थी, अनन्त उत्कण्ठा थी। अध्यात्म में गहरी रुचि थी, परम्परित शिक्षा में कोई आस्था नहीं थी, इसीलिए शालेय शिक्षा उन्होंने अधिक नहीं ली। धार्मिक शिक्षण जो भी हुआ, उसकी भूमिका पर अध्यात्म-विद्या ही अधिक थी।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/७९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org