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उन्होंने परम्परित भाषाओं को संरक्षण दिया, किन्तु लोकभाषा में आम आदमी तक जैनधर्म का कल्याणकारी सन्देश पहुँचाया। “अभिधान-राजेन्द्र" के रूप में उन्होंने जिनवाणी की अथाह सम्पदा की रक्षा की ओर "कल्पसूत्र की बालावबोध टीका" द्वारा वे आम आदमी के आँगन में उतरे। उन्होंने विद्वज्जन और सामान्यजन दोनों के हितों का ध्यान रखा और भाषा की निर्द्वन्द्व नीति का अनुसरण किया। उनकी यति-क्रान्ति की “नवकलमें" मारवाड़ी मिश्रित हिन्दुस्तानी में लिखी गयी हैं। इसी तरह उनके पद सधुक्कड़ी भाषा में हैं, कल्पसूत्र की बालावबोध टीका "मारवाड़ी, मालवी और हिन्दुस्तानी' का मिला-जुला रूप है, उस पर गुजराती की भी प्रतिच्छाया है। इस तरह श्रीमद ने जनभाषा का पूरा सम्मान किया और उन भाषाओं का जो जैन वाङमय की आकर भाषाएँ थीं, संरक्षण किया; ग्रन्थागार स्थापित किये, क्षत-विक्षत शास्त्रों के पुनर्लेख करवाये और उन्हें ग्रन्थागारों में व्यवस्थापूर्वक सुरक्षित किया। यह उनके जीवन का बहुत बड़ा मिशन था, जिसे उन्होंने सुदृढ़ संकल्प और निष्ठा के साथ सम्पन्न किया। आहोर का राजेन्द्र ग्रन्थालय उनके इस प्रयत्न का साकार रूप है। दूसरी ओर "अभिधान-राजेन्द्र" द्वारा उन्होंने शब्दों को व्यवस्थित किया, उनके विविध सन्दर्भो को स्पष्ट किया, उनके अर्थबोध परिभाषित किये और एक समुद्र को एक घट में समेटने जैसा परम पुरुषार्थ किया। विभिन्न शब्दों के तन से लिपटे अर्थ एक ही जगह व्यवस्थित कर दिये गये और जैनधर्म और दर्शन को सुलभ कर दिया गया। श्रीमद् का वश चलता तो वे "अभिधान-राजेन्द्र" की शब्द-व्याख्याएँ हिन्दी में भी देते किन्तु उनके युग में हिन्दी का इतना विकास नहीं हो पाया था कि वह कोशीय व्यवस्था और उसकी कसावट को पूरी तरह झेल सके, फिर भी “अभिधान-राजेन्द्र" के आरम्भ तथा अन्त में हिन्दी का उपयोग किया गया है। एक-दो जगहों पर तो अंग्रेजी का उपयोग भी हुआ है। इससे पता चलता है कि श्रीमद् के मन में किसी भाषा के लिए कोई पूर्वाग्रह नहीं था। वे अपने समसामयिक सम्प्रेषण-माध्यमों का पूरे औदार्य के साथ उपयोग करना चाहते थे, और इसीलिए उन्होंने पूरे नैतिक और सांस्कृतिक साहस के साथ इन माध्यमों का इस्तेमाल किया भी। भारत की प्राचीन भाषाओं को श्रीमद् के प्रति कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये कि उन्होंने इन्हें समृद्ध किया और एक आन्तर देशीय मंच पर उतारा।
शैक्षणिक दष्टि से भी श्रीमद का बड़ा योग है। उन्होंने प्राचीन भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से कई ग्रन्थों की रचना की और जगह-जगह पाठशालाएँ खोलने पर बल दिया। धरणेन्द्रसूरिजी के दफ्तरी के रूप में रहकर उन्होंने यतियों को काव्यांगों तथा विभिन्न प्राचीन भारतीय भाषाओं को पढ़ाया भी। इस तरह वे न केवल एक अच्छे ज्ञानार्थी थे वरन् एक चुस्त और अप्रमत्त अध्यापक भी थे। जब हम श्रीमद् के जीवन पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने ग्रन्थों के पठन-पाठन, उनकी सहज उपलब्धि, उनके लेखन,
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/७७
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